सोमवार, 5 फ़रवरी 2007

" माँ मन्थरा " सम्पूर्ण काव्य

अपने मुखारविंद से :-
ज्ञानी पाठकों,
चरण वंदन एवं अभिनंदन ।

एक पुत्र बनकर मैंने माँ मन्थरा के अन्तर्मन में झाँकने की कोशिश की है । टटोला है उसके हृदय को, और जो वात्सल्य, ममता देखा है वहाँ, उसी को साकार रूप दे रहा हूँ, " माँ मन्थरा " काव्य के माध्यम से ।

माँ के मुखारविंद से :-

समाज सुखी रहे और हो देश का नाम,
भले दुनिया कोसे मुझे या करे बदनाम ।

(क) मनन

सुप्रभात की सुरभि वेला में,
उदित हुआ ज्यों प्रभाकर,
अविजित उसका रूप देख,
तम भगने में नहीं किया देर ।१।

उपवन हो गया सजा भरा,
कलियाँ भी मुस्कुराईं,
पुष्पों के सुगंधित दौड़ में,
सुधाभरी पावन वेला आयी ।२।

देख प्रकृति का अनुपम उपहार,
विहगों ने छेड़ी मीठी तान,
सुगंधित मलय बयार चली,
करने लगे सब प्रभु का गान ।३।

मस्त हुआ हर तृण,पादप,
भौंरों ने गाना शुरु किया,
सरिता बह रही अविराम,
पथिकों को अमिय अभिराम दिया ।४।

घूमने लगे वन्य-जीव,
माँ ने बेटे को पुचकारा,
कृषक चला खेत की ओर,
बह चली प्रेम की धारा ।५।

उसी समय मंथरा चली,
सरयू नदी के तट पर,
मंदिरों में बज रही घंटियाँ,
मीठी वाणी से भरकर ।६।

मंथरा के कर में था लोटा व,
पुष्पमाला सुसज्जित डलिया,
उसने प्रणाम किया सरयू को,
लोटाभर जल भर लिया ।७।

तब चली मंदिर की ओर,
वह कैकेयी की महरी,
मंदिर में शिव के सामने,
उसने अपना माथा टेकी ।८।

उसने अर्पित किए पुष्प,
मालाओं को पहनाया,
हर्ष-विभोर होकर उसने,
आरती की,धूप जलाया ।९।

उसकी आँखों में चमक थी,
और प्रेम के आँसू बह रहे,
उसने अपनी सूझबूझ खो दी,
प्रभु से वह क्या कहे ।१०।

मन ही मन की कामना,
हर्षित रहें राजा-रानी,
सदा रहें सब सुख संपन्न,
आनंदित रहें सभी प्राणी ।११।

पुजारी के चरणों में कर प्रणाम,
लेकर उनका चरण-रजकण,
लौटी तब वह राजगृह को,
उसका हृदय था स्नेह रसपूर्ण ।१२।

कितना बड़ा भाग्य है उसका,
सोची हर्षित होकर वह,
विश्व-कल्याण के लिए कुछ करे,
यह बात गई दिल में रह ।१३।

कितनी पवित्र जन्मस्थली मेरी,
बहती पावन सरयू की धारा,
यही है कर्मस्थली भगीरथ की,
जिसने गंगा को स्वर्ग से उतारा ।१४।

बड़े-बड़े वीरों की माँ है,
यह अयोध्या नगरी,
सत्य,अहिंसा,मानवता की,
खुली है जहाँ गठरी ।१५।

अयोध्या के नृपति हैं दयालु,
दशरथ है जिनका नाम,
सत्य,धर्म,न्याय के पुजारी,
प्रजा को सुख देना इनका काम ।१६।

राजा की हैं तीन रानियाँ,
जो आपस में प्रेम से रहतीं,
पूरा राज्य है समृद्ध,खुशहाल,
प्रेम,समृद्धता की गंगा बहती ।१७।

राजा के हैं चार पुत्र,
चारों में है तेज भरा,
ये हैं वीर,महापराक्रमी,
इन्हे देख दुश्मन डरा ।१८।

चारों भाई थे आज्ञाकारी,
उनका गुणगान प्रजा गाती,
सदा हँसते रहते,उन्हे देख,
चौड़ी हो जाती छाती ।१९।

सर्वविदित सारा जग जानता,
वीरों से परिपूर्ण यह देश,
प्रत्येक जन है राष्ट्र पुजारी,
ना किसी को कोई क्लेश ।२०।

सबका है कर्तव्य यह कि,
जन्मभूमि के लिए कुछ करे,
नारी हो या नर,बालक हो,
राष्ट्र का शीश ऊँचा करे ।२१।

मंथरा सोचा करती थी,
नारी और चेरी है वह,
नमक खाती जिस राज्य का,
उसके लिए कुछ तो करे वह ।२२।

पूरे विश्व पर छा जाए,
यह कर्म-स्थली मेरी,
सब लें आदर से नाम,
भले मैं जीते जी मरी ।२३।

उस समय चारों तरफ था,
दुष्टों द्वारा हत्या,लूट,
वह चाहती सब हों निडर,
कोई राक्षस जाए न छूट ।२४।

मर जाएँ सभी निशाचर,
राम के अचूक बाणों से,
हो जाए पूरा विश्व राममय,
जन-जन के किए प्रतापों से ।२५।

वह जानती थी राम को,
वे नर नहीं ईश्वर हैं,
आए करने भक्तों का उद्धार,
वे माया से परे हैं ।२६।

जब विश्वामित्र आए थे,
प्रभु राम को ले जाने को,
क्यों न गए दूसरे राज्य में,
दुष्टों का संहार कराने को ।२७।

विश्वामित्र के साथ कानन में,
ये उनका यज्ञ सफल कराए,
ऋषिवर जानते, ये हैं नरश्रेष्ठ,
राक्षसों को ये मार भगाए ।२८।

क्यों प्रभु के चरण-रज से,
पत्थर भी नारी का रूप लिया,
हर्षित होकर अहिल्या ने,
प्रभु चरणों को चूम लिया ।२९।

जिस शिव-धनुष को बड़े-बड़े,
प्रतापी राजा तक हिला न पाए,
वैदेही के चल रहे स्वयंवर में,
विदेह के आँखों में आँसू आए ।३०।

वे समझे वीरविहीन यह धरती,
क्योंकि वहाँ थे सारे महिपति,
बड़े-बड़े योद्धा थे उसमें,सोचे,
अब क्या होगा हे शक्तिपति ।३१।

क्या मेरी नन्दिनी अब,
कुआँरी ही रह जाएगी,
मेरा प्रण टूटा तो क्या होगा,
सीता जीते जी मर जाएगी ।३२।

उधर देख सुनयना को,
चिंतित थे सब नर-नारी,
अगर धनुष न टूटा तो,
क्या होगा हे त्रिपुरारी ।३३।

उस समय था मंडप शान्त,
उठा मेरा राम सुकुमार,
हँसे नृपति सब उसे देखकर,
वे क्या जाने यही है नृपवर ।३४।

मैं सुनी थी राम ने ज्योंही,
ऋषिवर को शीश झुकाया,
उनकी कृपा,आशीष पाकर,
शिवधनु के पास आया ।३५।

सारा मंडप निस्तब्ध हो,
रह गया देखता-देखता,
राम ने उसे यों उठा लिया,
जैसे वह हो सूखा तिनका ।३६।

शिवधनु को टूटते शायद,
कोई भी देख न पाया,
देव भी हुए आन्नदित,
पुष्प उन्होंने बरसाया ।३७।

ज्यों टूटा धनुष प्रचंड,
टूट गया दुष्टों का हम,
हर्षित हुए सारे नर-नारी,
दूर हुआ जनकपुरी का गम ।३८।

चारों तरफ हुई जयकार,
मेरे पुत्र प्रभु राम का,
धन्य हुई अवध नगरी,
जहाँ जन्म हुआ भगवान का ।३९।

अगर ये ईश्वर नहीं थे,
तो शिवधनु को क्यों तोड़ा,
कितने बड़े-बड़े राजाओं के,
गर्व को जिनके जैसा तोड़ा ।४०।

अगर ये हैं नहीं ईश्वर,
सर्वव्यापी, पालनकर्ता,
तो क्यों बने ऋषिवर के,
और विदेह के दुखहर्ता ।४१।

मेरे राम परम ईश्वर हैं,
दिव्यपुरुष हैं महान,
ये आएँ हैं देने भक्तों को,
उनका खोया मान-सम्मान ।४२।

उसी समय जब पहुँचे,
जनक-गुरु श्रेष्ठ ऋषिवर,
जनक आज्ञा से जिसने,
काट लिया था माँ का सर ।४३।

ऐसे पिता भक्त जिसने,
सहस्त्रबाहु का वध किया,
इक्कीस बार क्षत्रियविहीन,
विष्णुप्रिया को कर दिया ।४४।

जिसके पहुँचते ही मंडप में,
सब प्रजापति काँप गए,
परशुराम के क्रोध को,
सब प्राणी भाँप गए ।४५।

ऐसे प्रभु परशुराम को,
राम ने ही शांत किया,
मीठी वाणी में बोलकर,
ऋषिवर का सम्मान किया ।४६।

ऋषिवर ने लेनी चाही परीक्षा,
अपना धनुष-बाण दिया,
कर में धारण कर,देखते ही,
राम ने प्रत्यंचा चढ़ा दिया ।४७।

पुत्र जमदग्नि के भाँप गए,
हो गया ईश्वर अवतार,
प्रभु प्रणाम कर हर्षित हुए,
होगा अब दुष्टों का संहार ।४८।

राम थे साक्षात प्रभु अवतार,
इस बात को माँ क्या जाने,
जिस राज्यप्रसाद में जन्म लिए,
वह राजा ही उनको क्या माने ।४९।

सब हैं यही जानते, ये लाल,
कौशल्या के सुखनन्दन,
पर मंथरा जानती थी,
ये हैं अखिल ब्रह्मांड निकंदन ।५०।

माँ बेटे को पहचान न पाई,
ना पहचाना कौशल राष्ट्र,
मंथरा की आंखे चमक गईं,
देख राम का तेज स्पष्ट ।५१।

महान व्यक्ति नहीं होता एक का,
सबका है उसपर अधिकार,
अगर राम हो गए युवराज,
कम नहीं होगा दुष्टों का भार ।५२।

माँ धरती रह जाएगी,
दुष्टों,राक्षसों से परिपूर्ण,
वह सदा रोती रहेगी,
कब मिटें निशाचर संपूर्ण ।५३।

गऊ,ब्राह्मण,साधू व ऋषि,
कष्टों से दब जाएँगे,
दुष्ट घूमेंगे निडर होकर,
सज्जनों को सदा सताएँगे ।५४।

ऐसा हो पुरुषोत्तम श्रीराम,
अगर वन को निकल जाएँ,
ऋषियों,ब्राह्मणों की दशा देख,
दुष्ट-संहार की कसम खाएँ ।५५।

धन्य होगी यह नगरी,
जहाँ ईश्वर ने जन्म लिया,
कानन-कानन घूम-घूमकर,
निशाचरों का संहार किया ।५६।

होगी अमर युग-युगांत तक,
यह मेरी अयोध्या नगरी,
चारों तरफ गुणगान राम का,
छँट जाएगी दुख की बदली ।५७।

वह चाहती राम बने,
दुखहर्ता,कानन के राजा,
इसके लिए वह क्या करे,
वे थे सबके दिल के राजा ।५८।

अभी सोच रही थी मंथरा,
प्रभु राम का क्या हो,
तभी गुप्तचर आया राम का,
बोला माँ की जय हो ।५९।

मंथरा का अभिनंदन कर,
गुप्तचर झुक कर बोला,
राम ने तूझे बुलाया माँ,
दिल की बात वह खोला ।६०।

मंथरा बोली आप चलें,
मैं कुछ देर में आई,
मेरा राम मुझे बुलाया,
अच्छा भाग्य मैं पाई ।६१।

गुप्तचर के जाने के बाद,
मंथरा मन ही मन मुस्काई,
इस समय तो सब सोए हैं,
राम की बुलाहट क्यों आई ।६२।

कहीं मेरे मन की बात,
तो नहीं जान गया वह,
मेरी इतनी इज्जत करता,
दिल की बात न मान जाए वह ।६३।

वह भले पुरुषोत्तम राम,
पर पहले मेरा राजदुलारा,
मैं नहीं भेज सकती कानन को,
सज्जन न पावें दुख से छुटकारा ।६४।

मेरी तो अँखिया है वह,
है अमृत वह मेरे लिए,
उस जैसे राम के बारे में,
मैंने कैसे ऐसे निर्णय लिए ।६५।

सोचते-सोचते मंथरा उठी,
चल दी रामप्रसाद की ओर,
पहुँची जब वह राम के पास,
हो रही थी उस समय भोर ।६६।

मंथरा के नैनों से ज्यों,
मिले प्रभु राम के नैन,
आँखों में आँसू लिए,
बोले राम मीठे बैन ।६७।

आ माँ आ, मेरे पास,
रामचन्द्र चिल्ला उठे,
अहा, कितना माधुर्य क्षण
देवता भी विह्वल हो उठे ।६८।

प्रभु राम ने बड़े प्रेम से,
मंथरा को पास बैठाया,
आँखों में आसूँ लिए हुए,
अपनी बात कह सुनाया ।६९।

बोले, माँ वह तूँ ही है,
कर सकती मेरा कल्याण,
देख तेरे रहते मेरा,
कैसे हो सकता अकल्याण ।७०।

यह सत्य था कि मंथरा,
राम की थी उत्तम भक्त,
राम ने ही कहा,कुछ ऐसा कर,
माँ, मत कर बर्बाद वक्त ।७१।

मैं तेरी शरण में आया हूँ,
ऐ जगतजननी वीरांगना,
तू मुझे अब कानन दे दे,
कब तक खेलूँ मैं तेरे अंगना ।७२।

अगर मैं कानन को जाऊँगा,
हर्षित होंगे सभी ऋषि,साधू,
तेरी कसम मुझे है जननी,
संत यज्ञ जलेगा धू-धू-धू ।७३।

जाके वहाँ विपिन में,
करूँगा दुष्टों का संहार,
मरेंगे ऐसे सभी निशाचर,
जो करते प्राणी मांस आहार ।७४।

अगर माँ तेरे दिल में,
थोड़ा प्रेम हो मेरे लिए,
तू मान ले मेरी बात,
सत्य,धर्म रक्षा के लिए ।७५।

देख माँ निशाचरों,दुष्टों को,
कितना आतंक मचाए हैं,
असत्य,अधर्म व लूटमार का,
साम्राज्य, चहुँदिश फैलाए हैं ।७६।

इन के डर से रोते धर्मी,
ना कर पाते यज्ञ, हवन,
अगर तू मुझे भी ना भेजे,
इनकी रक्षा में है दूसरा कौन ।७७।

देख अगर तू अब भी,
वन का राज्य नहीं देती,
इन ऋषि,निर्दोष प्राणियों,
के दुख को अपने सर लेती ।७८।

काँप उठेगी सत्य,मानवता क्या,
एक माँ देखती रही यह नृत्य,
निशाचरों को निडर घूमने देना,
एक माँ का ही था,ऐसा कृत्य ।७९।

देख माँ ना दोगी तुम आज,
मुझे वन जाने का आशीष,
कल अयोध्या का राजमुकुट,
आ लगेगा मेरे शीश ।८०।

तब लोग कहेंगे सबको थी,
अपने-अपने सुख की सीध,
उन प्राणियों को कोई न देखा,
जिन्हे नोचते कौवे, गीध ।८१।

तू ही है, एक ऐसी माँ,
मेरा तिलक रोक सकती,
प्रभु हमेशा भक्तों की सुनता,
आज प्रभु की सुनेगी भक्ती ।८२।

राम की व्याकुलता देख,
मंथरा के नैन भर आए,
अहा, आज वह अपने,
प्रभु का कैसा दर्शन पाए ।८३।

प्रभु आज निस्सहाय हो,
उसके आगे हाथ पसारें,
सत्य, मानवता रक्षा हेतु,
माँ, माँ कहके पुकारें ।८४।

माँ का कर्तव्य है क्या,
तब वह लगी सोंचने,
क्यों न हामी दे दी पहले,
वह लगी दिल को कोसने ।८५।

उसने प्रभु राम का शीश,
अपनी गोदी में भर लिया,
जा बेटा कर धर्म की रक्षा,
उनको यह आशीष दिया ।८६।

तू तो है, सत्य, धर्म रक्षक,
होगा तूझे क्या तुच्छ राज,
तू तो आया है करने,
सज्जनों और देवों का काज ।८७।

तू है सत्य और धर्म रूप,
तू है जगत-पिता ईश्वर,
तू है अजर,अटल,अमर,
ये सारा विश्व है नश्वर ।८८।

देख मंथरा का वह रूप,
राम माँ में ही खो गए,
विश्व कल्याण का अद्भुत बीज,
मंथरा के हृदय में बो गए ।८९।

मंथरा सोची मेरा भाग्य,
कहाँ ले आया मुझको,
मुझ जैसी दासी चाहे तो,
निडर कर दे सज्जनों को ।९०।

कितना बड़ा मेरा भाग्य,
सज्जनों के काम आऊँ मैं,
दुनिया कुछ भी कहती रहे,
प्रभु का आशीष पाऊँ मैं ।९१।

मंथरा जानती थी प्रजा मुझे,
डायन,राष्ट्रद्रोही करार देगी,
जो भी दुनिया आएगी,
मुझे अपमानित, घृणा करेगी ।९२।

कुछ भी कहती रहे दुनिया,
चाँद,सूर्य भी अपना पथ छोड़े,
डगमगा जाएँ सारे दिग्गज,
पर एक माँ न अपना प्रण तोड़े ।९३।

जा राम तेरी कसम,
दासी तूझे करती स्वतंत्र,
तोड़ दे दुष्टजनों का गर्व,
ना कोई रहे यहाँ परतंत्र ।९४।

पर याद तूझे रखना है,
इस दासी की छोटी बात,
उल्लंघन ना करना मर्यादा का,
यह वचन तू देते जा तात ।९५।

सुनकर मंथरा का वक्तव्य,
राम हर्षित हो बोल पड़े,
धन्य है तू जगतजननी,
देख दुष्ट अब सब मरे ।९६।

बड़े-बड़े योगी जिनको हरक्षण,
भजते, खोजा करते हैं,
वही प्रभु योगेश्वर,
दासी को माँ कहते हैं ।९७।

पा मंथरा का आशीष,
हर्षित हुआ राम का मन,
धन्य है वह भारतीय नारी,
जीते जी मृत्यु कर दी तन ।९८।

राम हर्षित हो चल दिए,
मंथरा का गुणगान किए,
बोले धन्य है, प्यारी माँ,
जिसने अभय हो वर दिए ।९९।

राम गए अपने कक्ष में,
भला नींद उन्हें क्यों आए,
देख अपने भक्तों का कष्ट,
ईश्वर को कब चैन आए ।१००।

जिसके लिए हुआ अवतार,
जन्म लिए जग के तारणहार,
आज आँखों में प्रेम के आँसू लिए,
करते एक दासी माँ की जयकार ।१०१।

सोचते सबसे बड़ी है मंथरा,
जिसने ना देखा अपना दुख,
जनहित,विश्वकल्याण के लिए,
फूँक दिए अपने सारे सुख ।१०२।

मैं तो हूँ इस योग्य,
यह बात मैं जानूँ,
पर मुझसे योग्य है माँ,
यह बात मैं मानूँ ।१०३।

अगर आज न होती माँ,
मैं भी विवस हो जाता,
यही कारण है कि माँ के आगे,
सारा विश्व शीश झुकाता ।१०४।

प्रभु राम भी बोल पड़े,
हृदय के उद्गार डोल पड़े,
सबसे ऊँची है नारी,
नारी ही है सबपर भारी ।१०५।

देख राम का संकल्प,
मंथरा हुई सिद्धि का साधन,
देव हर्षित हो दुंदुभी बजाए,
अब होगा दुष्टों का मर्दन ।१०६।

धन्य है वह माँ मंथरा,
सज्जनों के सपने पूरे किए,
व्योम से गिरे सुगन्धित पुष्प,
वृक्षों पर विहगों के कलरव गूँजे ।१०७।

चारों तरफ थी खुशियाँ,
प्रिय राम युवराज बनेंगे,
नदियों में अमृत जलधारा,
उपवन में सुंदर पुष्प खिलेंगे ।१०८।

सोची मंथरा कितने हैं हर्षित,
राजपरिवार व अयोध्यावासी,
खग,पशु भी सब नृत्य कर रहे,
सब हैं राम-प्रेम अभिलाषी ।१०९।

जब राम कल वन को जाएँगे,
इनके सपनों का क्या होगा,
सोचेंगे भाग्य है कितना क्रूर,
दे गया हम सबको धोखा ।११०।

कुछ भी हो कल राम विदाई,
कराने की मैं शपथ लेती,
पर करूँ अब कुछ तो उपाय,
व्यर्थ अब मैं क्यों सोती ।१११।

जाकर कहूँ राम ईश्वर है,
नृपति मेरी नहीं सुनेंगे,
भले वे कुछ बोलें ना बोलें,
पर मन ही मन खूब हँसेंगे ।११२।

वे सोचेंगे मेरा बेटा है,
राजकुमार युवराज,
मेरे पश्चात वही पाएगा,
यह वैभव,सुख संपन्न राज ।११३।

कौशल्या से कहूँ कि,
ये नर नहीं ईश्वर हैं,
ये भले हैं आपके पुत्र,
पर साक्षात परमेश्वर हैं ।११४।

वे भी दुत्कार देंगी मुझे,
वे हैं पुत्र-प्रेम की हैं भूखी,
जाकर कहूँ अपनी रानी से,
चाहें हों वे बहुत क्रुद्ध, दुखी ।११५।

दौड़ी मन्थरा कैकेयी के पास,
किसी तरह राम वन को जाएँ,
दिल में लिए बस एक तमन्ना,
ऋषि, भक्त सब शान्ति पाएँ ।११६।

जानती थी समझाना मुश्किल,
कैकेयी जैसी कल्याणी को,
फिर भी करूँ कर्तव्य अपना,
राम को दिया वचन पुराने को ।११७।

सबसे ज्यादे प्रिय राम थे,
कैकेयी के प्राण समान,
अपने बेटे को वन भेजे,
विधि का यह कैसा विधान ।११८।

डरी सहमी पहुँची मन्थरा,
अवधेश दुलारी कैकेयी के पास,
उसने विनती की सरस्वती की,
सदा रहना तू मेरे साथ ।११९।


कैकेयी से हँसकर बोली,
सुनो अवधेश की रानी,
याद करो अपने वो दो वर,
जो कभी दिए थे नृपति दानी ।१२०।

देख आज तूझे माँगने हैं,
राजा से वे दो वर,
कैकेयी मंद मंद मुस्काई,
फूट गए हँसी के स्वर ।१२१।

कैकेयी हँसकर बोली,
मेरी भी सुन मन्थरा,
आज मैं क्यों कुछ माँगू,
समय है कितना हर्षभरा ।१२२।

प्रिय राम का आज होगा,
राजतिलक, हर्षपूर्ण अभिनंदन,
वह है मेरा राजदुलारा,
नृपति का वह बड़ा नन्दन ।१२३।

तुम ही जो चाहो माँग लो,
अपनी इस प्यारी रानी से,
खुशी और हर्षोल्लास मनाओ,
नहीं माँगूगी वर, मैं राजा दानी से ।१२४।

मंथरा बोली तू होगी चेरी,
जब युवराज राम बनेंगे,
तू फिरेगी मारी-मारी,
नृपति भी तेरी नहीं सुनेंगे ।१२५।

समझ कितना अच्छा हो,
भरत पा जाएँ यह राज,
वह तेरा अपना पुत्र है,
कितना होगा शुभ यह काज ।१२६।

अरे तू है कैसी माँ,
पुत्र सुख न दे सकती,
तेरा पुत्र भी तो योग्य है,
निकाल कोई ऐसी युक्ति ।१२७।

राम चले जाएँ वन को,
भरत पाए यह राजगद्दी,
सब हों अपने हर्षित काज,
सुख की बह जाए शाश्वत नदी ।१२८।

पर विधि की विडम्बना,
कैकेयी सोची, है निराली,
मेरे राम साक्षात नरवर हैं,
सत्य,धर्म,मानवता के प्याली ।१२९।

कितनी अच्छी लीला उनकी,
कोई भी समझ न पाए,
उन प्रभु को वनवास कराने,
अपनी चेरी ही आए ।१३०।

मंथरा को कैसे समझाऊँ,
ये हैं दीनदयाल, भक्तवत्सल,
इनको जो भी छलने जाए,
वह खुद जाए ही छल ।१३१।

(ख) महत्व

होगा वही जो वो चाहेंगे,
जगतपालक, प्रभुश्रीराम,
जो होना है, हो जाएगा,
वे ही करते हैं सारे काम ।१३२।

किसी तरह मंथरा हुई सफल,
माँ हो गई भरत वत्सल,
पर प्रजा के देखने में था,
दासी का यह जघन्य छल ।१३३।

अपना हित तो सब करते हैं,
मनुष्य वही जो परहित मरे,
अपने भूखा रहकर भी,
दूसरों का पेट भरे ।१३४।

हम सोंचे अपना हित,
तो फर्क क्या रह जाएगा,
मानव और हैवान में,
सत्य, अहिंसा कौन जगाएगा ।१३५।

अस्तु हैं हम सब मानव,
सोंचे विश्व का कल्याण,
इसी में है हम सबकी खुशी,
कोई न फेंके अहित का वाण ।१३६।

मंथरा दासी थी, सत्य है,
पर दासी, आज का नौकर,
कदापि नहीं, कदापि नहीं,
वह तो थी धर्म,सत्य-वर ।१३७।

मंथरा थी सलाहकार,
देती रानी को सलाह,
कभी नहीं सोंच सकती अहित,
सदा दिखाई सच्ची राह ।१३८।

अस्तु मंथरा की बात मान,
कैकेयी ने शुरु की ऐसी लीला,
अयोध्या के नर-नारी का क्या,
डोल गया राजा का अभेद्य किला ।१३९।

कैकेयी ने माँगा वे दो वर,
जो दिए थे कभी दशरथ दाता,
राम को चौदह वर्ष का वनवास,
और भरत को युवराज का टीका ।१४०।

कैकेयी का अनुशासन पाए,
प्रभु राम वन को गए,
रो रही थी मंथरा दासी,
मेरा हृदय वो लिए गए ।१४१।

सबने दुतकारा फटकारा,
मंथरा सब सहती रही,
धीरे-धीरे चौदह वर्ष की,
अवधि भी बीत गई ।१४२।

इधर रोते-रोते मंथरा
की अँखिया सूख गई,
लेते-लेते प्रभु का नाम,
सारी दुनिया को भूल गई ।१४३।

वह लगने लगी थी पगली-सी,
जिसका इकलौटा बेटा खो गया,
उस बेटे को खोजते-खोजते,
उसका दिल भी डूब गया ।१४४।

देखती रही राम की राह,
कब वे दीनदयाल आएँगे,
इन सूखी अँखियों से वे,
निर्मल, पवित्र जल बहाएँगे ।१४५।

जब सुनी मंथरा, प्रभो राम,
आ रहें हैं अयोध्या नगरी,
वह तो विह्वल हो रो पड़ी,
दूर हुई दुख की बदली ।१४६।

अयोध्या भी होगा हरा-भरा,
आ गए सबके तारणहार,
लौटे हैं अपने घर को,
हर करके धरती का भार ।१४७।

कुछ भी हो उनके जाने से,
नगरी हो गई निर्जीव थी,
ना देती थी शीतलता,
अग्नि-बयार बहती थी ।१४८।

अयोध्या में था दुख का राज,
दुखी थे सब अयोध्यावासी,
इसी कारण वे कहते मुझे,
कुबड़ी चुगली, अकल्याणी ।१४९।

आज थी वह अति प्रसन्न,
अपने प्रिय राम से मिलूँगी,
कितना कष्ट उठाया उसने,
उसकी अंतर्व्यथा सुनूँगी ।१५०।

आए राम मिले सबसे,
खुशियों के फूल खिले,
मंथरा को अँकवार में भर,
माँ कहकर लिपट मिले ।१५१।

कुछ भी हो थी वह खुश,
राम ने दुष्टों का संहार किया,
उस अजन्मा का छकछककर,
नैनों से रसपान किया ।१५२।

जिस नारी ने दिया,
राम को कानन का राज,
अपमानित होकर भी,
किया सत्पुरुषों का काज ।१५३।

राम ने जिसे दिया आदर,
वह दासी नहीं हो सकती,
वह तो कल्याणमयी थी,
थी ईश्वर की सच्ची भक्ती ।१५४।

जैसी सोची थी मंथरा,
वह सब सत्य हो गया,
राम क्या अयोध्या राज,
विश्वपटल पर छा गया ।१५५।

मंथरा एक प्रजा थी,
अयोध्या जैसी नगरी की,
उसने अपना कर्तव्य निभाया,
राष्ट्र-गौरव की रक्षा की ।१५६।

हर एक देशभक्त चाहता है,
उसका देश महान कहलाए,
पूरे इस विश्व मंडल पर,
उसकी कृति का झंडा लहराए ।१५७।

राष्ट्रभक्त की है यह,
सबसे बड़ी सत्य निशानी,
जो हो सो देश को अर्पण कर दे,
ताकि बने एक नेक कहानी ।१५८।

होगा अगर राष्ट्र का नाम,
जन-जन का नाम अमर होगा,
हो जाए अगर एक कलंकी,
सबकुछ तहस-नहस होगा ।१५९।

एक सदस्य का क्या कर्तव्य,
मंथरा ने दिखला दिया,
आँखों में आँसू लिए,
राम-वनवास करा दिया ।१६०।

वह तो चेरी थी कैकेयी की,
वैभव का था उसका राज,
सभी चाहते प्रेम से उसे,
चेरी जैसा नहीं उसका काज ।१६१।

वह अपने को राजपरिवार की,
एक सदस्या मानती थी,
उसने नमक खाया राज्य का,
यह बात वह जानती थी ।१६२।

उसके रग-रग में था,
सच्चे नमक की लालिमा,
धन्य है नारी, राष्ट्र-गौरव हेतु,
अपने मुँह पर लगा ली कालिमा ।१६३।

कुछ भी हो, कैसा भी हो,
पर नमक ने रंग दिखाया,
एक दासी ने राम के,
यश का झंडा फहराया ।१६४।

राजकुमार दशरथ लाल को,
दिया उसने इतना सम्मान,
दुनिया की नजरों में बना दिया,
राजपुत्र को श्री भगवान ।१६५।

राम को ईश्वर बनाने में,
मंथरा ने अहम् भूमिका निभाई,
गौरवान्वित कराया देश को,
राजघराने ने भी गरिमा पाई ।१६६।

उसे क्या मिला, दुख ही मिला,
कोई भी भाँप न पाया,
सब कहते हैं उसे कलंकी,
समाज ने उसको ठुकराया ।१६७।

धन्य है वह वीरांगना,
भारत माँ की बेटी,
मातृभूमि गौरव के लिए,
अपमान शय्या पर लेटी ।१६८।

धन्य है वह नारी जिसने,
विश्व कल्याण कराई,
पर विधि का यह कैसा विधान,
वही हो गई अपने लिए पराई ।१६९।

आज हम उस नारी का,
नहीं करते हैं सम्मान,
उसे हम घृणा से देखते,
करते उस जैसों का अपमान ।१७०।

राम करते जिसका आदर,
क्यों हम करें उसका अपमान,
जिसने दिया एक शुद्ध समाज,
उसको हम भी दें सम्मान ।१७१।

हम दें उसे भी प्रेम,
महिमामयी हो समाज,
नहीं सुनते प्रभु की भी,
कैसी दशा दासी की आज ।१७२।

हम मानते अगर प्रभु को तो,
दासी की भी इज्जत करनी होगी,
राम को मानते अगर आदर्श,
तो सबकी भलाई करनी होगी ।१७३।

वह दिन तब दूर कहाँ,
रामराज्य होगा चारों ओर,
दीप जलेगा ज्ञान-प्रकाश का,
मिट जाएगा अंधेरा घोर ।१७४।

हमें गर्व है अपने राष्ट्र पर,
जहाँ रानी क्या एक दासी,
की कल्याण सारे विश्व का,
सूर्य, चंद्र हैं इसके साक्षी ।१७५।

वास्तव में तू धन्य है माँ,
खुद को बदनाम किया,
राष्ट्र गौरव बढ़ाने हेतु,
अमृत छोड़ विष-पान किया ।१७६।

माँ तू तो दासी थी,
तूने जो कर दिखाया,
तू ही है वह सच्ची माँ,
भारत गौरव को बढ़ाया ।१७७।

देख आज फिर से तेरी,
जरूरत आ पड़ी है,
सब हैं अपने-अपने चिल्लाते,
मान,मर्यादा की किसे पड़ी है ।१७८।

दासी क्या, माँ बेटे को,
सत्यकर्म में नहीं लगा सकती,
जहाँ भी आता गरिमा का प्रश्न,
बेहिचक अपना सर झुका देती ।१७९।

देख आज तेरे लाल बहक गए,
आज वे नहीं सोचते अच्छाई,
आ के राम को जगा दो,
खोल दो उसकी सच्चाई ।१८०।

आ के बता जा, ऐ भारत की नारियों,
देख जो है तेरे कोख का मोती,
वह राम भी हो सकता है,
उसे जगा, निस्सहाय हो क्यों रोती ।१८१।

लाल की गरिमा को जगा,
बता कि वह उस राम का वंश है,
जिसने लाज रखी माँ के दूध का,
उसी ईश्वर का अंश है ।१८२।

धन्य है हमारा देश,
जहाँ छोटे-छोटे प्राणी,
कर देते सर्वस्व न्यौछावर,
हो जाते प्रकाशित मणि ।१८३।

कभी-कभी बड़े जो काम,
करने में हिचकिचाते हैं,
ऐसे उठकर छोटे स्वयं,
वह कर्म कर दिखाते हैं ।१८४।

पर क्या वे छोटे हैं,
कदापि नहीं, कदापि नहीं,
ऐसे रूप में ही आते हैं,
भगवान ही, भगवान ही ।१८५।

शत-शत नमन उन माँ को,
जिन्होंने प्यारा विश्व बसाया,
कण-कण अर्पित उन चरणों में,
जिनका गान प्रभु ने गाया ।१८६।

नारी ही है आदिशक्ति,
नारी ही है कल्याणी,
नारी अगर नारी ना रहे,
विश्व हो जाए वीरों से खाली ।१८७।

विश्व का कल्याण चाहें तो,
करें नारी का सम्मान,
धूल चटा दें उन दुष्टों को,
जो करते नारी अपमान ।१८८।

गंगा को माँ कहते हैं,
उसकी पूजा करते हैं,
अन्य नदियों को भी,
माँ का दर्जा देते हैं ।१८९।

यमुना की धारा तो देख,
बहती वह सदानीरा अविराम,
यह माँ तो ही है,
करती प्राणियों का कल्याण ।१९०।

हम अपने राष्ट्र को भी,
माँ ही कहते आए हैं,
सदा-सदा ही इस भारती के,
चरणों में शीश झुकाते हैं ।१९१।

धन्य है मेरा भारत राष्ट्र,
नारी का इतना सम्मान,
खंजन भी नारी रक्षा हेतु,
न्यौछावर कर दी अपनी जान ।१९२।

पहले-पहल, पुरातन काल से,
नारी की इज्जत करते आए हैं,
बिन नारी के हम पूर्ण नहीं,
नारी-सम्मान से ही सम्मान पाए हैं ।१९३।

जब-जब डूबे अंधेरे में,
कोई रास्ता सूझ न पाया,
हमने याद किया नारी को,
उसने ही प्रकाश दिखाया ।१९४।

नारी के हैं कई रूप,
वह माँ, बहन, पत्नी है,
विपत्ति-काल में वही,
एक सच्ची संगिनी है ।१९५।

जिसने किया माँ से प्रेम,
हो गया वह साक्षात् ईश्वर,
माँ का ही आशीर्वाद पाकर,
ध्रुव बने अटल तारावर ।१९६।

कितना बदल गया है युग,
दासों का सम्मान कहाँ,
ये बेचारे मारे-मारे फिरते,
इनका खिल्ली उड़ाता सारा जहाँ ।१९७।

आज नौकर की औकात,
कुछ भी तो नहीं है,
शोषण और अपमान हो रहा,
इनका, सब कहीं है ।१९८।

आज के नौकर को देखें,
करता है हींकभर काम,
पर यह संसार देता उसे,
घोड़े, गदहे जैसा नाम ।१९९।

हम उसे नहीं मानते,
अपने जैसा एक इंसान,
उसे कष्ट देने में ही,
हम समझते अपना मान ।२००।

नौकर सोचा करता है,
क्या मैं इंसान नहीं,
मेरी हालत तो देखो,
लगता कहीं भगवान नहीं ।२०१।

एक वह युग था, जब,
दासों का भी होता था मान,
लोग समझते उसे अपना अंग,
देते उसको उचित सम्मान ।२०२।

वह रहता एक गृहक जैसा,
पीता, खाता रहता मस्त,
गृह को अपना गृह समझता,
उसे ना होता कोई कष्ट ।२०३।

प्रसाद में हो कोई समारोह,
प्रेम से लेता वह भी भाग,
करता वह सबकी इज्जत,
नहीं जलती ईर्ष्या की आग ।२०४।

सब इज्जत देते, यह भी मानव,
रखता जीने का अधिकार,
घुलमिलकर उससे रहते,
कहीं एही न हो श्रीभगवान ।२०५।

आपस में सब मिलकर रहते,
सब में है ईश्वर का अंश,
सबकी करें सभी इज्जत,
मिले बराबर का सबको अंश ।२०६।

होगा किसी को आत्मकष्ट,
तो दुख ईश्वर को होगा,
मानवता, सत्य, धर्म का,
जग से पलायन होगा ।२०७।

हम सब एक जैसे मनुष्य,
क्यों दें दूसरों को दुख,
आइए आपस में हिलेमिलें,
चारों ओर हो सुख ही सुख ।२०८।

आइए आज खाएँ सौगंध,
अपने प्रभु श्रीराम का,
ना देंगे किसी को कष्ट,
यह तन बने सबके काम का ।२०९।

ना होगा किसी को दुख,
सब मिलबाँट कर खाएँगे,
सबसे प्यारा विश्वबन्धुता,
एक राग में गाएँगे ।२१०।

मिट जाएगा छोटे बड़ों का,
आपसी मनमुटाव,
सब रहेंगे राम की छाया में,
होगी सबके लिए एक नाव ।२११।

चारों ओर होगा तब,
प्रेम, भाईचारे का राज्य,
ना रहेगा किसी को दुख,
होंगे सारे सुख के काज ।२१२।

राम अपने मंथरा अपनी,
एक दासी एक राजा,
पर दासी ही माँ है,
जिसने बनाया सच्चा राजा ।२१३।

शत-शत प्रणाम उस देवी को,
जिसके द्वारा दुष्ट हुए खतम,
आन, मान, मर्यादा आया,
भगा अन्याय, असत्य का तम ।२१४।

शत-शत बार नमन वंदन,
माँ का, प्रभु श्रीराम का,
जिसके चलते आज हैं हम,
नाक, सारे जहाँ का ।२१५।

(माँ की जय)

रचयिता -
प्रभाकर पाण्डेय






4 टिप्‍पणियां:

ePandit ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता। इसीलिए कहा गया है - जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

Divine India ने कहा…

एक बिल्कुल नये तरह के काव्य के पूर्ण होने पर आपको हमारी ढेरों बधाइयाँ!!बहुत अच्छे संयोजको के साथ लिखा यह काव्य एक अलग नजरीया जरुर प्रदान करती है…।इस तरह के काम और प्रोत्साहन मिलना चाहिए…हिंदी जगत के लिए यह एक वरदान ही है…कहाँ दिखते है कोई काव्य लिखने बाला कविता तो वर्तमान में अकविता ज्यादा हो गई है…मन को भा गया… बेहतरीन!!!

david santos ने कहा…

Thanks for you work and have a good weekend

बेनामी ने कहा…

ज़बरदस्त रचना...