कृष्ण जन्माष्टमी का त्योहार पूरे भारत और विश्व के कुछ अन्य देशों में भी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। कहीं रासलीला का आयोजन होता है तो कहीं बाल-कृष्ण की झाँकी निकाली जाती है। कहीं-कहीं भजन-कीर्तन का आयोजन होता है तो कहीं-कहीं मेलों में देव-देवी की मूर्तियों से पंडाल सजाए जाते हैं। इस प्रकार एक बहुत ही आध्यात्मिक और सौहार्दपूर्ण माहौल का निर्माण हो जाता है।आइए इस पावन अवसर पर मैं आप महानुभाओं को देवरिया लिए चलता हूँ और देखते हैं कि इस जनपद में कृष्ण-जन्माष्टमी मनाने का स्वरूप कैसा है? देवरियाई जनता क्या-क्या करती है इस अवसर पर.....।
देवरिया के हर थाने, कोतवाली आदि में कृष्ण जन्माष्टमी का समारोह बहुत ही धूम-धाम से मनाया जाता है। इन स्थानों को सजाया जाता है। बाल कृष्ण की झाँकी लगाई जाती है। नृत्य-गायन, भजन-कीर्तन आदि रातभर चलते रहते हैं।
शहरों, कस्बों आदि में जगह-जगह देव-देवी विशेषकर माखनचोर की मूर्तियों को पंडाल में सजाया जाता है और रातभर मेला चलता रहता है। लोगों का हजूम उमड़ता है और भगवान के दर्शन करते हुए मेले का आनन्द उठाता है।
तो अब आइए, थोड़ा ग्रामीण क्षेत्रों की ओर यानि गाँवों की भी सैर करें और देखें कि ग्रामीण जनता-जनार्दन जन्माष्टमी का त्योहार किस प्रकार मनाती है।
कृष्ण-जन्माष्टमी के दिन अधिकांश ग्रामवासी व्रत रखते हैं। यहाँ तक कि छोटे-छोटे बच्चे भी श्रद्धा और उत्साह के साथ व्रत रखते हैं। कुछ बच्चे तो इस आशा में व्रत रखते हैं कि खूब फल, जैसे- सेब, केला आदि और रामदाना, दूध, दही आदि भरपूर मात्रा में खाने को मिलेगा।इन ग्रामीण क्षेत्रों में कृष्ण जन्माष्टमी को समारोह के रूप में मनाने की तैयारी सुबह जगते ही शुरु हो जाती है। बच्चों का काम फूल-माला आदि तैयार करना और तोरण बनाने के साथ-साथ आम के पल्लव, अशोक के पल्लव व केले के पौधे आदि एकत्र करना होता है। जवनका गोल (युवा वर्ग) बुढ़वा गोल (बुजुर्ग वर्ग) की देख-रेख में डोल (एक प्रकार का मंदिर जो कपड़े, रंगीन कागज आदि को एक छोटी चौकी के ऊपर लकड़ी आदि पर चिपकाकर बनाया जाता है) का निर्माण करते हैं। इस डोल को विभिन्न प्रकार के सजावटी सामानों से सजाया जाता है। फिर इस डोल को किसी के घर या मंदिर में रख देते हैं। डोल के अगल-बगल में तोरण आदि के साथ-साथ केले के पौधे, आम, अशोक, कनैल आदि की छोटी-छोटी पल्लवदार टहनियाँ लगाई जाती हैं। यह झाँकी बहुत ही मनमोहक होती है और एक अद्भुत, आध्यात्मिक आनन्द मन में कहीं हिचकोले लेने लगता है। साम होते ही इस डोल में बाल कृष्ण की मूर्ति या फोटो आदि के साथ अन्य देवी-देवता के फोटो भी रखे जाते हैं। दीपक, अगरबत्ती आदि जलाई जाती है। इस डोल के मध्य में एक खीरे आदि को फाड़कर उसमें कसैली (सुपाड़ी) आदि डालकर रख देते हैं। कीर्तनियाँ लोग कीर्तन गाना शुरु कर देते हैं और यह कीर्तन लगातार बारह बजे रात तक चलता रहता है जबतक भगवान का जन्म नहीं हो जाता। बारह बजते ही एक व्यक्ति डोल के पास जाकर सादर सुपाड़ी को खीरे में से निकालकर अलग रख देता है यानि भगवान का प्रकटीकरण। इसके साथ ही शंख, घंटे, ढोल, नगाढ़े आदि से पूरा वातावरण गूँजने लगता है। चारों तरफ भगवान कृष्ण की जय-जयकार सुनाई देती है। भए प्रकट कृपाला, दीन दयाला... के बाद कीर्तनिया गोल यह कीर्तन,
"आठो हो बजनवा, जसोदा घर बाजे,
जसोदा घर बाजे, जसोदा घर बाजे, नंद घरे बाजे, आठो हो बजनवा, जसोदा घर बाजे।
जब जनम लिए बनवारी, तब खुली गइली जेल के केवारी (किवाड़),
देवकी अउरी बसुदेव के खुली गइल हाथ के बधनवा, हो हाथ के बधनवा,
जसोदा घर बाजे, जसोदा घर बाजे, नंद घरे बाजे, आठो हो बजनवा, जसोदा घर बाजे........। "
गाते हैं। इसके बाद आरती होती है और प्रसाद बाँटा जाता है। प्रसाद की मात्रा बहुत ही अधिक होती है क्योंकि बहुत सारे श्रद्धालु अपने-अपने घर से मनभोग (आटे को घी में भूनकर चीनी, सूखे फल आदि मिलाकर बनाया हुआ प्रसाद), पंजीरी (धनिया को भूनकर, पीसकर उसमें चीनी, मेवे आदि मिलाकर बनाया हुआ प्रसाद), चनारमृत (पंचामृत) और फलों को काटकर लाते हैं और ये सभी प्रसाद लोगों में बाँटे जाते हैं। प्रसाद ग्रहण करने के बाद सभी लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं पर एक जरूरी बात यह है कि एक या दो लोग डोल के पास ही नीचे सोते हैं और दीपक में बराबर तेल-बत्ती करते रहते हैं ताकि अक्षय-दीप बराबर जलता रहे।
उस दिन से लगातार हर रात को भजन-कीर्तन का सिलसिला शुरु हो जाता है और आरती के बाद प्रसाद वितरण होता है।
पाँचवें, सातवें, नौवें या ग्याहरवें दिन इस डोल को पूरे गाँव में घूमाया जाता है। डोल के पीछे-पीछे कीर्तनिया गोल कीर्तन-भजन करते हुए चलता है और कुछ लोग डोल के साथ-साथ मनभोग, पंजीरी, पंचामृत आदि प्रसाद लेकर चलते हैं और दर्शनार्थियों को बाँटते हैं। यह डोल प्रत्येक घर में जाता है और उस घर के सभी लोग बाल कृष्ण के दर्शन करते हैं और श्रद्धापूर्वक कुछ दान-दक्षिणा चढ़ाते हैं। पूरे गाँव में डोल को घूमाने के बाद आरती करके विसर्जन कर दिया जाता है।
और हाँ जो भी चढ़ावा चढ़ता है उसको गिनकर किसी के घर पर रख दिया जाता है और अगले साल वह व्यक्ति कुछ और रुपए मिलाकर वापस करता है। इस पैसे से डोल के सामान के साथ-साथ वाद्य-यंत्र आदि खरीदे जाते हैं।
।।हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
बोलिए कृष्ण भगवान की जय।
-प्रभाकर पाण्डेय
शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
देवरिया जनपद की कृष्ण-जन्माष्टमी
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
11 टिप्पणियां:
इस जन्माष्टमी घर गए हैं क्या पांडेजी? बिल्कुल ऐसा ही कुछ माहौल हमारे यहाँ भी होता है !
पंडितजी, मैंभी देवरिआ का हूँ। आप बहुत अच्छा लिखें हैं। परनाम।
राकेश गुप्ता।
आभार जानकारी के लिए.
प्रभाकर जी ,आप देवरिया जनपद के नाम रोशन कैली
बहुत अन्नंद भैल,बधाई
" aapke post pdh kr aisa lga jaise saras janmastmee kaa ustav ankhon ankhon mey jee liya, bhut sunder vernan"
Regards
Prabhakarji, ati uttam blog..........aur sadhuwaad apke is prayatna ko....
aapke saare post ne dil chhu liya pandey ji......
aapke saare post ne dil chhu liya pandey ji......
वाह जन्मा।ष्टमी की पूरी झांकी खींच दी आपने हमारे लिये । बतपन की यादें ताजा हो गई ।
hum aapko thanks dete hai
pranav singh
://pranavgaurav.blogspot.com
कुछ मेरी बातें देवरिया के बारे में
http://www.vivekkumarjnu.blogspot.com/
एक टिप्पणी भेजें