बुधवार, 15 दिसंबर 2010

आपने भी तो दिलाई है देवरिया को सुप्रसिद्धि...फिर आपकी आँखों में वेदना क्यों?


कभी-कभी अत्यधिक वेदना से घिर जाता हूँ....लगता है काश मैं भी देवरिया के लिए, देवरियाई जनता के लिए कुछ कर पाता। और ये परिस्थिति तो उस समय और मेरे मन को हिलाकर रख देती है जब योग्य व्यक्ति को भी निराश...हतास देखता हूँ।
ऐसे लोग जिन्होंने जनपद को, देश को, समाज को गौरवांवित किया और आज खुद जनपद, देश, समाज उनकी खैर पूछने से कतरा रहा है, उनके कंघे पर अपना सांत्वनाभरा हाथ रखने से घबरा रहा है। देवरिया के जनप्रतिनिधि, पूँजीपति, बड़े अधिकारी अगर चाहें तो इन योग्य लोगों को सम्मान के साथ ही साथ एक खुशहाल जीवन जीने को मिले।


जब कभी मैं राजबलिजी के बारे में सोचता हूँ तो व्यथित हो जाता हूँ। आप भी अगर इस देवरियाई से मिलेंगे तो इनकी व्यथा-कथा सुनकर अपनी आँखों को गीली होने से नहीं रोक पाएँगे। जानना चाहेंगे आप राजबलिजी के बारे में? अगर आप सहमति में सिर हिला रहे हैं तो सुनिए-


देवरिया जनपद के रुद्रपुर विकास-खंड के अंतर्गत पिपरा कछार नामक गाँव के निवासी राजबलिजी भले विकलांग हैं पर अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति एवं कर्मठता के बल पर इन्होंने विशिष्ट खेलों में 10 स्वर्ण, 4 रजत एवं एक कांस्य पदक हासिल किया है।
अपने दोनों पैर मात्र चार वर्ष की अवस्था में एक ट्रेन दुर्घटना में खो चुके इस संकल्पित व्यक्ति ने बी.ए. तक की शिक्षा अर्जित करने के बाद खेलों में अपनी प्रतिभागिता बढ़ाई। इनके तैराकी के चर्चे तो गाँव-जवार से निकलकर देश-प्रदेश में गुंजायमान होने लगे। अब तो यह युवा खिलाड़ी खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने लगा एवं जनपद, देश को गौरवांवित करने लगा।


1980 में लखनऊ में हुए राष्ट्रीय विकलांग खेल में क्रिकेट फेंकने में इनको प्रथम पुरस्कार मिला। फिर उसके बाद तो इन्होंने तैराकी, गोला क्षेपण, कुश्ती आदि में कई पुरस्कार अपने नाम किए। खेलों में इनकी निपुणता को देखते हुए 1981 में इन्हें जापान से बुलावा आया और इस कर्मठी देवरियाई ने अपनी खेल-प्रतिभा से सबको मोहित करते हुए तैराकी एवं 60 फुट गोला क्षेपण में प्रथम आते
हुए दो स्वर्ण पदक अपने नाम कर लिया। 1982 में इन्हें हांगकांग जाने का अवसर मिला और वहाँ भी इस योद्धा ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हुए 1 स्वर्ण एवं 2 रजत पदक झटका। इसी साल हांगकांग में ही व्हिल चेयर दौड़ में इन्हें कास्य पदक भी मिला।


इतने सारे पदकों पर कब्जा जमानेवाले राजबलिजी की आँखें आज निराशाभरी क्यों? वेदनाभरी क्यों?  क्या अब राजबलिजी को अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए इन पदकों को बेचना पड़ेगा? अगर सरकार कुछ नहीं कर सकती तो क्या देवरिया में ऐसा कोई नहीं है जो इस व्यक्ति की आँखों में आशा की झलक पैदा कर सके? स्वर्ण पदक विजेता होने के बाद भी यह खिलाड़ी-योद्धा गरीबी में जीने पर विवश क्यों? इस गौरवप्राप्त खिलाड़ी को आज धरना देने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है?


आज यह महान खिलाड़ी बहुत कुछ की उम्मीद लगाए नहीं बैठा है...यह तो बस यह चाहता है कि बुढ़ापे में उसे एवं उसके परिवार को शांतिपूर्ण रूप से दो जून की रोटी मिले, उसकी बच्ची को शिक्षा मिले। इसके लिए भी यह सरकार से पैसा नहीं चाहता, यह तो बस यही चाहता है कि इसकी पत्नी को कोई रोजगार या नौकरी मिल जाए ताकि इनका बाकी जीवन आराम से कट जाए।


आइए, और ऐसे लोगों के जीवन को सुखमय बनाइए जिन्होंने देश, जनपद, समाज को गौरवांवित किया है। आशा है ऐसे व्यक्ति की सहायता करके आप बहुत ही सुख-शांति का अनुभव करेंगे।। जय हो।।


निहोराकर्ता-
एक आम देवरियाई
प्रभाकर पाण्डेय

1 टिप्पणी:

Rahul Singh ने कहा…

आंचलिक गौरव और सम्‍मान के बिना देश प्रेम अधूरा है.