चित्र- साभार जागरण |
याद है
मुझे, जी हाँ! अच्छी तरह याद है। वैसे भी जीवन
के, बचपन के उन अविस्मरणीय समय को मैं क्या, कोई भी नहीं भूल सकता। बोरा, बस्ता और
पटरी उठाकर उस समय हम निकल जाते थे गाँव के प्राइमरी की ओर। गाँव में प्राइमरी
स्कूल तो था, पढ़ाने वाले पंडीजी भी थे पर यह पता नहीं होता था कि आज स्कूल कहाँ
लगनेवाला है, क्योंकि स्कूल की जमीन होते हुए भी स्कूल का भवन तो था नहीं। जहाँ
स्कूल की जमीन थी, वहाँ कुछ लोग अस्थायी खलिहान बना लेते थे या कुछ महिलाएँ उस
जमीन पर गोबर पाथते हुए (जलावन के लिए) नजर आ जाती थीं। एक हप्ते कभी श्री दसरथ
सिंह के बगीचे में तो कभी-कभी कई महीनों तक श्री रामदास यादव के खलिहान में हमारा
स्कूल लगता था। कभी-कभी तो अत्यधिक धूप से बचने के लिए हमारा स्कूल इस बगीचे से उस
बगीचे की सैर किया करता था। बारिस के सीजन में हम बच्चों की चाँदी रहती थी,
क्योंकि कभी-कभी तो किसी की मड़ई-पलानी में स्कूल लग जाता था पर जोरदार बारिस में स्कूल
अधिकतर बंद ही रहता था। वैसे भी स्कूल में था क्या, एक टूटी कुरसी, वह भी गाँव के
किसी सज्जन ने पंडीजी को बैठने के लिए दे दिया था। हाँ एक चीज जो स्कूल की अपनी थी,
वह था पटरा (श्यामपट्ट)। प्रतिदिन हमलोग भंगरई (भेंगराई) लाते थे और श्यामपट्ट को
चमकाते थे। पंडीजी इस श्यामपट्ट (पटरे) पर जोड़-घटाना, गुणा-भाग सिखाते थे।
पंडीजी के
आने से पहले ही मानिटर की देख-रेख में स्कूल शुरू होने के पहले हम लोग अपना-अपना
बोरा निकालते थे और एक साथ सभी मिलकर (बोरे के एक कोने को हाथ से पकड़कर और उस हाथ
को अपने दोनों बाजू में घुमाते हुए पीछे बड़ते थे) एक दिशा में बढ़ते हुए जमीन की
साफ-सफाई करते थे, फिर हमलोग बैठने के लिए अपना-अपना बोरा बिछाते थे और मास्टर
साहब (पंडीजी) के आने का इंतजार करते थे। ज्योंही पंडीजी हमें कच्ची सड़क से बगीचे
की ओर अपनी टूटही साइकिल को मोड़ते हुए दिखते थे, हम सभी लोग चुपचाप सावधानीपूर्वक
अपनी जगह पर बैठ जाते थे और पंडीजी के साइकिल खड़ा करते ही उनके आदरार्थ अपनी जगह
पर खड़ा हो जाते थे। फिर क्या मानिटर लाइन लगवाता था और प्रार्थना शुरू हो जाती
थी, हे प्रभो! आनंददाता, ज्ञान हमको
दीजिए...... प्रार्थना के बाद फिर हम सभी बच्चे अपने-अपने बोरे पर आकर बैठ जाते थे
और पंडीजी के बताए अनुसार अपनी पटरी पर लिखना शुरू कर देते थे।
दोपहर में
खाना खाने की छुट्टी होती थी, क्योंकि उस समय न सरकार द्वारा मध्यान्न भोजन दिया
जाता था और न ही आज की तरह हम लोग टिफिन ही लेकर स्कूल में जाते थे। दोपहर की
छुट्टी की घंटी लगते ही हम सभी बच्चे अपने बोरों से अपनी पटरी आदि को ढंक कर लंक
लगाकर अपने-अपने घर की ओर भागने लगते थे। उस समय खूब चिल्ल-पौं मच जाती थी और
पंडीजी चाहकर भी हम बच्चों को शांत नहीं रख पाते थे। देखते ही देखते स्कूल की जगह
पूरी तरह खाली। बस रह जाते थे तो टूटी कुर्सी पर बैठे हुए पंडीजी और उनकी किसी
पेड़ के सहारे खड़ी साइकिल। हाँ कभी-कभी गाँव का कोई मनई दोपहर के समय पंडीजी से
बात करते हुए उनके अकेलेपन को दूर करने की कोशिश करता था या कभी-कभी पंडीजी ही दोपहर
की छुट्टी होते ही अपनी साइकिल डुगराते हुए गाँव के बाहर के किसी के घर पर आ जाते
थे और उसके दरवाजे पर बैठ जाते थे, घर वालों से उनकी सुनते और अपनी सुनाते, इस
प्रकार उनकी दुपहरी कट जाती थी।
घरवालों की
डाँट-डपट के बाद हम कुछ बच्चे लगभग 2 बजे फिर स्कूल में जमा हो जाते थे। खैर दोपहर
के बाद हमारी पढ़ाई विशेषकर गोल में होती थी और पढ़ाने वाले विशेषकर तेज बच्चे ही
हुआ करते थे। क्योंकि दोपहर बाद पंडीजी कुर्सी पर बैठे हुए बस बच्चों पर नजर रखते
थे और उन्हें पढ़ने-पढ़ाने के लिए तेज या यूं कह लें बड़ी कक्षा के बच्चों को
निर्देशित करते थे। कभी-कभी तो कक्षा 2 से लेकर 5 तक के बच्चों को एक साथ गोलंबर
(गोल रूप में) में बिठाकर गिनती या पहाड़ा पढ़ाने का काम शुरू हो जाता था। जैसे
सभी बच्चे गोलंबर में बैठ जाते थे और एक बच्चा उन सबके पीछे घूमते हुए जोर-जोर से
दुक्के दु, दु दुनी चार.....बोलता और फिर सभी बच्चे उसे दुहराते। जो बच्चा तेज
नहीं बोलता उसे पंडीजी बाँस की कोइन से मारते या पहाड़ा पढ़ाने वाला बच्चा ही धम्म
से उसकी पीठ पर मुकियाकर आगे बढ़ जाता। एक अलग ही आनंद। हाँ एक बात और बताना
चाहूँगा, दोपहर के बाद स्कूल आने वाले बच्चों की संख्या थोड़ी कम हो जाती। कोई
बच्चा बहाना बना जाता तो कोई, बकरी, गाय-भैंस आदि चराने निकल पड़ता। इतना ही नहीं
कुछ बच्चे घाँस आदि काटने तो कुछ अपने घरवालों की मदद के लिए स्कूल नहीं आते।
फिर चार
बजते ही स्कूल की घंटी टनटनाती और हम सभी बच्चे अपना बस्ता, बोरा और पटरी उठाए घर
की ओर दौड़ जाते। उस समय कोई किसी को नहीं पहचानता और सिर्फ उसे अपना घर ही दिखाई
देता। एक बार 4 बजे छुट्टी की घंटी लगने के बाद पंडीजी क्या, अगर पूरा गाँव भी
इकट्ठा होकर चाहे बच्चों को रोक ले तो संभव नहीं था। बच्चे तीर की तरह निकलकर घर
पहुँचना चाहते थे।.....जारी (अगले अंक में......)
-पं.
प्रभाकर पांडेय गोपालपुरिया