रविवार, 25 सितंबर 2016

गाँव (देवरिया जिला) की पाठशाला (भाग-1)

चित्र- साभार जागरण
याद है मुझे, जी हाँ! अच्छी तरह याद है। वैसे भी जीवन के, बचपन के उन अविस्मरणीय समय को मैं क्या, कोई भी नहीं भूल सकता। बोरा, बस्ता और पटरी उठाकर उस समय हम निकल जाते थे गाँव के प्राइमरी की ओर। गाँव में प्राइमरी स्कूल तो था, पढ़ाने वाले पंडीजी भी थे पर यह पता नहीं होता था कि आज स्कूल कहाँ लगनेवाला है, क्योंकि स्कूल की जमीन होते हुए भी स्कूल का भवन तो था नहीं। जहाँ स्कूल की जमीन थी, वहाँ कुछ लोग अस्थायी खलिहान बना लेते थे या कुछ महिलाएँ उस जमीन पर गोबर पाथते हुए (जलावन के लिए) नजर आ जाती थीं। एक हप्ते कभी श्री दसरथ सिंह के बगीचे में तो कभी-कभी कई महीनों तक श्री रामदास यादव के खलिहान में हमारा स्कूल लगता था। कभी-कभी तो अत्यधिक धूप से बचने के लिए हमारा स्कूल इस बगीचे से उस बगीचे की सैर किया करता था। बारिस के सीजन में हम बच्चों की चाँदी रहती थी, क्योंकि कभी-कभी तो किसी की मड़ई-पलानी में स्कूल लग जाता था पर जोरदार बारिस में स्कूल अधिकतर बंद ही रहता था। वैसे भी स्कूल में था क्या, एक टूटी कुरसी, वह भी गाँव के किसी सज्जन ने पंडीजी को बैठने के लिए दे दिया था। हाँ एक चीज जो स्कूल की अपनी थी, वह था पटरा (श्यामपट्ट)। प्रतिदिन हमलोग भंगरई (भेंगराई) लाते थे और श्यामपट्ट को चमकाते थे। पंडीजी इस श्यामपट्ट (पटरे) पर जोड़-घटाना, गुणा-भाग सिखाते थे।
पंडीजी के आने से पहले ही मानिटर की देख-रेख में स्कूल शुरू होने के पहले हम लोग अपना-अपना बोरा निकालते थे और एक साथ सभी मिलकर (बोरे के एक कोने को हाथ से पकड़कर और उस हाथ को अपने दोनों बाजू में घुमाते हुए पीछे बड़ते थे) एक दिशा में बढ़ते हुए जमीन की साफ-सफाई करते थे, फिर हमलोग बैठने के लिए अपना-अपना बोरा बिछाते थे और मास्टर साहब (पंडीजी) के आने का इंतजार करते थे। ज्योंही पंडीजी हमें कच्ची सड़क से बगीचे की ओर अपनी टूटही साइकिल को मोड़ते हुए दिखते थे, हम सभी लोग चुपचाप सावधानीपूर्वक अपनी जगह पर बैठ जाते थे और पंडीजी के साइकिल खड़ा करते ही उनके आदरार्थ अपनी जगह पर खड़ा हो जाते थे। फिर क्या मानिटर लाइन लगवाता था और प्रार्थना शुरू हो जाती थी, हे प्रभो! आनंददाता, ज्ञान हमको दीजिए...... प्रार्थना के बाद फिर हम सभी बच्चे अपने-अपने बोरे पर आकर बैठ जाते थे और पंडीजी के बताए अनुसार अपनी पटरी पर लिखना शुरू कर देते थे।
दोपहर में खाना खाने की छुट्टी होती थी, क्योंकि उस समय न सरकार द्वारा मध्यान्न भोजन दिया जाता था और न ही आज की तरह हम लोग टिफिन ही लेकर स्कूल में जाते थे। दोपहर की छुट्टी की घंटी लगते ही हम सभी बच्चे अपने बोरों से अपनी पटरी आदि को ढंक कर लंक लगाकर अपने-अपने घर की ओर भागने लगते थे। उस समय खूब चिल्ल-पौं मच जाती थी और पंडीजी चाहकर भी हम बच्चों को शांत नहीं रख पाते थे। देखते ही देखते स्कूल की जगह पूरी तरह खाली। बस रह जाते थे तो टूटी कुर्सी पर बैठे हुए पंडीजी और उनकी किसी पेड़ के सहारे खड़ी साइकिल। हाँ कभी-कभी गाँव का कोई मनई दोपहर के समय पंडीजी से बात करते हुए उनके अकेलेपन को दूर करने की कोशिश करता था या कभी-कभी पंडीजी ही दोपहर की छुट्टी होते ही अपनी साइकिल डुगराते हुए गाँव के बाहर के किसी के घर पर आ जाते थे और उसके दरवाजे पर बैठ जाते थे, घर वालों से उनकी सुनते और अपनी सुनाते, इस प्रकार उनकी दुपहरी कट जाती थी।
घरवालों की डाँट-डपट के बाद हम कुछ बच्चे लगभग 2 बजे फिर स्कूल में जमा हो जाते थे। खैर दोपहर के बाद हमारी पढ़ाई विशेषकर गोल में होती थी और पढ़ाने वाले विशेषकर तेज बच्चे ही हुआ करते थे। क्योंकि दोपहर बाद पंडीजी कुर्सी पर बैठे हुए बस बच्चों पर नजर रखते थे और उन्हें पढ़ने-पढ़ाने के लिए तेज या यूं कह लें बड़ी कक्षा के बच्चों को निर्देशित करते थे। कभी-कभी तो कक्षा 2 से लेकर 5 तक के बच्चों को एक साथ गोलंबर (गोल रूप में) में बिठाकर गिनती या पहाड़ा पढ़ाने का काम शुरू हो जाता था। जैसे सभी बच्चे गोलंबर में बैठ जाते थे और एक बच्चा उन सबके पीछे घूमते हुए जोर-जोर से दुक्के दु, दु दुनी चार.....बोलता और फिर सभी बच्चे उसे दुहराते। जो बच्चा तेज नहीं बोलता उसे पंडीजी बाँस की कोइन से मारते या पहाड़ा पढ़ाने वाला बच्चा ही धम्म से उसकी पीठ पर मुकियाकर आगे बढ़ जाता। एक अलग ही आनंद। हाँ एक बात और बताना चाहूँगा, दोपहर के बाद स्कूल आने वाले बच्चों की संख्या थोड़ी कम हो जाती। कोई बच्चा बहाना बना जाता तो कोई, बकरी, गाय-भैंस आदि चराने निकल पड़ता। इतना ही नहीं कुछ बच्चे घाँस आदि काटने तो कुछ अपने घरवालों की मदद के लिए स्कूल नहीं आते।
फिर चार बजते ही स्कूल की घंटी टनटनाती और हम सभी बच्चे अपना बस्ता, बोरा और पटरी उठाए घर की ओर दौड़ जाते। उस समय कोई किसी को नहीं पहचानता और सिर्फ उसे अपना घर ही दिखाई देता। एक बार 4 बजे छुट्टी की घंटी लगने के बाद पंडीजी क्या, अगर पूरा गाँव भी इकट्ठा होकर चाहे बच्चों को रोक ले तो संभव नहीं था। बच्चे तीर की तरह निकलकर घर पहुँचना चाहते थे।.....जारी (अगले अंक में......)

-पं. प्रभाकर पांडेय गोपालपुरिया

शनिवार, 2 जुलाई 2016

राष्ट्रीय स्तर पर पहलवानी में देवरिया का रोशन करते नाम – श्री रामप्रवेश यादव उर्फ़ साधू पहलवान

पहलवानी! जी हाँ, पूर्वांचल भी पीछे नहीं है पहलवानी में। यहाँ के कई पहलवानों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मिट्टी को गौरवांवित किया है। वैसे भी मिट्टी की कीमत केवल किसान ही नहीं पहलवान भी जानता है। जाने भी क्यों नहीं, चाहें कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए पर इसी मिट्टी को तो सिर से लगाते, मिट्टी में धोबिया पछाड़ आदि से अपने प्रतिद्वंदी को पछाड़ता है। आइए, आज आपका परिचय ऐसे ही एक राष्ट्रीय पहलवान से करवाता हूँ। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं देवरिया जिले के रुद्रपुर ब्लाक के केवटलिया गाँव के जाने-माने पहलवान श्री झल्लर यादव के प्रपौत्र श्री साधू यादव की। साधू यादव को विरासत में कुश्ती कला मिली है। बचपन से ही नदी के रेत में ताल ठोंकने से अपनी कुश्ती की शुरुआत करने वाले साधू यादव आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देवरिया के साथ ही भारत का नाम रोशन करने के लिए जी-जान से अपनी कुश्ती कला में निखार ला रहे हैं।
पहली बार ही स्वतंत्रता दिवस पर फुलवरिया गाँव में हो रहे कुश्ती में विजय पाते ही  स्पोर्ट चैंपियनशिप में उसका चयन हो गया। 5 अगस्त 2011 को गोरखनाथ मंदिर में आयोजित 85 कि.ग्रा. फ्री स्टाइल में गोरखपुर केसरी के लिए दूसरे राउंड में जीत के बाद तीसरे में मात खा गए थे। पराजय के बाद भी उसने हार नहीं मानी और होस्टल में रहकर प्रयासरत रहे तथा 2011 में ही गोण्डा के "डी. ए. वी." इंटर कॉलेज, नवाबगंज में हुए राज्यस्तरीय प्रतियोगिता के 76 केजी वेट फ्री स्टाइल में बराबरी पर छूटे। इस पहलवान की कड़ी मेहनत और कुछ कर गुजरने का जज्बा रंग लाया और कुश्ती में लगातार प्रयासरत रहा ग्यारहवीं का यह छात्र साधू 2012 में फिर120 किलोग्राम में स्टेट चैम्पियनशिप के लिए चुन लिया गया। साधू यादव लगभग लुप्त हो चुकी इस परम्परा (कुश्ती) को फिर से जीवित करने का बीड़ा तो उठाया ही हैं साथ ही अपने क्षेत्रवासियों की सेवा भी करना चाहते हैं। आज साधु यादव न सिर्फ अपने गाँव-जवार के अपितु जिले के लिए गौरव हैं। यह पहलवान राजनीति के माध्यम से अपने पूरे छेत्र की छवि बदलने के लिए व्याकुल है, उत्सुक है और इस पहलवान द्वारा अपने स्तर पर सेवा करने का ही प्रतिफल रहा कि केवटलिया गाँव के लोगों ने इसे अपना ग्राम-प्रधान चुना। साधू यादव के नेतृत्व में प्रतिवर्ष कुश्ती का आयोजन किया जाता है जिसमें मंडल के साथ ही बाहर के भी छोटे-बड़े पहलवान हिस्सा लेते हैं। साधू यादव पूरी तरह से समाज सेवा के साथ ही पहलवानी के लिए अपने आप को समर्पित कर दिए हैं।
श्री पंकज यादव भोजपुरिया
मिट्टी से जुड़ा, अपनों से जुड़ा यह देवरियाई पहलवान राजनेताओं से बहुत ही क्षुब्ध है। इसे लगता है कि अगर समाज सेवा करनी है, अपने क्षेत्र की स्थिति सुधारनी है तो राजनीति में जाना ही होगा। इसे के मद्देनजर यह पहलवान यूपी में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में रुद्रपुर विधानसभा क्षेत्र से भावी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में कृतसंकल्पित दिख रहा है। भगवान के साथ ही जनता का प्यार इसे मिले, यही सुभकामना है पर साथ ही यह भी अपेक्षा की यह साधू अपने साधुत्व कर्मों से देवरिया का नाम रोशन करता रहे। जय-जय।
(ध्यान दें- यह जानकारी भेजी है साधू यादव के गाँव के ही श्री पंकज यादव भोजपुरिया ने। पंकज यादवजी साधू यादव के बहुत ही करीबी और अभिन्न मित्र हैं। ये अपने जवार की जनता से अपील भी करते हैं कि साधू यादव के साथ खड़ी हो और साथ ही पंकजजी साधू यादव के मंगलमयी, विजयमयी जीवन की कामना करते हैं।)
-पं. प्रभाकर पांडेय गोपालपुरिया

शनिवार, 25 जून 2016

युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत – श्री विमलेश कुमार त्रिपाठी (देवरिया)

श्री विमलेश कुमार त्रिपाठी
जी हाँ, आइए, आप लोगों को मैं श्री विमलेश कुमार त्रिपाठी से मिलवाता हूँ। विमलेश कुमार त्रिपाठीजी नोनापार (देवरिया) के रहने वाले हैं और अभी हाल में ही इनकी पोस्टिंग झारखंड में डीवाईएसपी (Dysp) के पोस्ट पर हुई है। श्री विमलेशजी का परिवार सादगी का धनी है तथा इनकी परवरिश ज्ञान के परिवेश में हुई है। बचपन से ही कुशाग्रबुद्धि विमलेश जी अध्ययन के प्रति सदा गंभीर रहे हैं और पढ़ाई के साथ ही साथ जनसेवा में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते आए हैं।

नोनापार (देवरिया) के रहने वाले श्री विमलेश त्रिपाठी के पिता श्री विश्वम्भर त्रिपाठीजी क्षेत्र-जिले के एक सम्मानित व्यक्ति हैं और सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य हैं। अपने पिता के मार्गदर्शन में विमलेशजी ने इस ऊँचाई को छूते हुए अपने घर-परिवार-गाँव-गड़ा के साथ ही अपने जिले देवरिया का नाम रोशन किया है। श्री विमलेश जी ने यह दर्शा दिया कि अगर सही रणनीति के साथ परिश्रम किया जाए तो वह व्यर्थ नहीं जाता।

विमलेशजी ने बताया कि अपनी क्षमता को आंकने के साथ ही अगर कुछ कर गुजरने की इच्छा हो तो दिन-रात परिश्रम करके मंजिल को हासिल किया जा सकता है पर यह जरूरी है कि सही दिशा में कदम बढ़ाया जाए और मंजिल को ध्यान में रखा जाए। साथ ही विमलेशजी यह भी कहते हैं कि अध्ययन की बात हो या कोई और हमें अति से पार नहीं जाना चाहिए और जीवन में अपने कर्तव्य का सही निर्वहन करते हुए आगे बढ़ना चाहिए तो मंजिल पाना आसान हो जाता है।
माननीय मुख्यमंत्री, झारखंड के हाथों डीवाईएसपी का नियुक्ति-पत्र ग्रहण करते हुए

विमलेशजी की इच्छा थी कि वे एक बड़े अधिकारी बने, क्योंकि बचपन से ही वे ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं, चुनौतियों आदि को देखते आ रहे हैं और सदा इन समस्याओं को दूर करने की एक हसरत उनके हृदय में कसक देती रही है। अब वे अपनी मंजिल पाकर जनसेवा में पूरी तरह से अपने को झोंक देने के लिए तैयार हैं। देवरिया की ओर से हम उनके मंगलमय जीवन की कामना करते हुए, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से आगे बढ़ने की कामना रखते हैं।


-पं. प्रभाकर पांडेय गोपालपुरिया

सोमवार, 20 जून 2016

लंठाधिराज ‘नेता काका’

क्या जानते हैं आप नेता काका के बारे में? नहीं जानते? कोई बात नहीं, मैं बताने जा रहा हूँ आपको नेता काका के बारे में। पूरा परिचित करवाऊँगा आपको उनसे। मैं यह तो नहीं कह सकता कि उनकी कहानी सुनकर आप हँस पड़ेंगे पर इस बात की गारंटी देता हूँ कि उनके बारे में जानकर आप मुस्काए बिना नहीं रह सकते और इतना ही नहीं आपको जब-जब नेता काका याद आएंगे (याद आएंगे नहीं, आएंगे ही!) आप अपनी मंद-मंद मुस्कान को रोक नहीं पाएंगे। अगर गाँव-जवार में लंठों के लिए कोई पदवी, उपाधि होती, जैसे कि लंठाधिराज’, ‘श्री श्री महा लंठाधिराज आदि तो हर साल इसे जरूर नेता काका ही जीतते और जीतते क्यों नहीं, हर साल वे जो अपनी नई-नई लंठई द्वारा सुर्खियों में बने रहते हुए लोगों के चेहरों पर गुस्सा मिश्रित हँसी का संचार कर जाते हैं।
गोल-मटोल शरीर, मध्यम कद-काठी, गौर वर्ण, चेहरे पर सदा तैरती हल्की सी गंभीर मुस्कान के धनी नेता काका के घुंघराले छोटे-छोटे पर पूरे बाल भी शायद बचपन से ही श्वेत वर्ण के हैं और आज भी अपनी चमक को बरकरार रखे हुए हैं। किसी गंभीर बात को भी हँसी में बदल देने वाले नेता काका सामने वालों को हँसने पर तो मजबूर कर देते हैं पर उनके चेहरे की गंभीरता पर उस हास्य का कोई असर नहीं दिखता, हाँ कभी-कभी मंद मुस्कान उनकी श्वेत बतीसी की हल्की झलक, बदली में लुका-छिपी का खेल खेलते चंद्र-सूर्य की भाँति प्रकट कर जाती है।
नेता काका का असली नाम क्या है, मुझे क्या, शायद अधिकांश गाँववालों को भी पता नहीं। शायद इसका कारण यह है कि नेता काका का यही नाम (नेता) सुनने से गंभीर चेहरे पर भी एक मुस्कान जो तैर जाती है, रोता हुआ बच्चा भी नेता काकाशब्द का उच्चारण कहीं से भी कान में पड़ते ही हँस उठता है इसलिए कोई उनका असली नाम जानने की कोशिश नहीं करता। और साथ ही जबसे मैंने होश संभाला है, पाया है कि गाँव-जवार, हित-नात भी सभी उन्हें नेता-नेता ही कहकर बुलाते आ रहे हैं। कुछ लोग बताते हैं कि एक बार विधायकी के चुनाव में नेता काका खमेसर शुकुल का प्रचार कर रहे थे, उनकी गाड़ियों में घूम-घूमकर, माइक में चिल्ला-चिल्लाकर खमेसर शुकुल को ओट देने के लिए जनता से अनुरोध करते। पर एक बार खमेसर शुकुल ने खुद ही अपनी नंगी आँखों से उन्हें विपक्षी उम्मीदवार मटेसर पाणे की गाड़ी पर घूमते हुए और उनका जय-जयकारा लगाते हुए देख लिया था। फिर क्या था, खमेसर शुकुल नेता काका को बुलवाए और साक्षात दंडवत करते हुए धरती पर लोट गए तथा हाथ जोड़कर बोले कि आप ही वास्तव में नेता हो, हम लोग आपके आगे फेल हैं, जीरो हैं। कहा जाता है कि तभी से नेता काका नेता-नेता कहे जाने लगे। इतना ही नहीं, वैसे भी नेता काका को बराबर टिनोपलहिया कुर्ता-पाजामा-गमछा में ही देखा जाता है, शायद इस कारण भी वे नेता कहलाते हैं।
 आइए, आपको इनकी एक पुरानी नेतागीरीपूर्ण हास्य घटना सुना देता हूँ। एक बार नेता काका कुछ काम से गाँव से 50-60 किमी दूर मडरौना नामक एक शहर में गए थे। वहाँ जिला स्तरीय फुटबाल मैच का उद्घाटन होने वाला था और उद्घाटन के लिए जिला-शहर देवरिया से एक युवा नेता आने वाले थे। जिला-शहर देवरिया से मडरोना की दूरी लगभग 80 किमी है। लोग-बाग बेसब्री से मैच शुरू होने का इंतजार कर रहे थे पर उद्घाटन के बाद ही मैच शुरू होना था। नेता काका को वहाँ किसी से जानकारी मिली कि उद्घाटन के लिए जो नेता आने वाला है, वह एकदम नया है और इस इलाके में पहली बार आ रहा है, इसलिए यहाँ उपस्थित लोग उसे पहचानते नहीं, और जो 2-3 लोग पहचानते हैं, वे ही उसकी अगुआई करने के लिए, उसे लाने के लिए देवरिया (जिला-शहर) गए हैं। संयोग देखिए कि नेता काका उस युवा नेता से लखनऊ में मिल चुके थे और उसे जानते थे। अब नेता काका की मनबढ़ई रंग लाई, वे चुपके से अपने एक दोस्त के घर पर गए, वहाँ से कुर्ता-पाजामा पहने अपने 3-4 परिचितों को लिए और एक दोस्त की जीप पर सवार होकर फुटबाल मैदान में पहुँच गए। नेता काका वैसे भी नेता तो लग ही रहे थे और साथ ही उनकी जीप पर कुछ फूल-माला भी टंगा था, फिर क्या था, आयोजकों से बोले कि वे देवरिया से तरकुलवा एक सभा में चले गए थे और वहीं से सीधे यहाँ आ रहे हैं। उस समय किसी के पास मोबाइल आदि तो था नहीं और वैसे भी मैच उद्धाटन में देरी हो रही थी। फिर क्या था, नेता काका गंभीर मुद्रा बनाए फीता काटकर मैच का उद्धाटन कर दिए, मिठाई-उठाई बँट गई, मैच भी शुरू हो गया, फिर कुछ जरूरी काम का बहाना बनाकर नेता काका, अपने दोस्तों के साथ खिसक लिए। इधर मैच शुरू होने के लगभग 20-25 मिनट बाद असली नेता (मतलब जो उद्धाटन करने आने वाला था) वहाँ पहुँचा पर वह और उसे लेकर आने वाले तो दंग रह गए क्योंकि उन्होंने देखा कि फीता-ऊता तो पहले ही कट गया है और मैच भी शुरू हो गया है। फिर क्या था, आयोजक मंडली गुस्से में लाल होकर लगी नेता काका को खोजने पर नेता काका कहाँ मिलने वाले थे, वे तो अपने गाँव आने वाली बस में सवार होकर गाँव की ओर निकल चुके थे। नेता काका से कुछ दोस्तों ने पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया तो कहने लगे कि वह नेता पता नहीं कब आता, फिर फीता काटता, फिर मैच शुरू होता! मुझसे दर्शकों की परेशानी देखी नहीं गई और अगर वह नेता भी आता तो फीता ही तो काटता, तो मैंने काट दिया तो क्या गुनाह कर दिया।
मेरे गाँव के दो और लंठाधिराज
आइए, अब आप लोगों को नेता काका के लड़कपन में लिए चलता हूँ। नेता काका जब प्राइमरी में पढ़ते थे तो स्कूल से बहुत ही बंक मारते थे। गाँव से स्कूल जाते समय किसी बगीचे आदि में रूक जाते और अपने कुछ सहपाठियों के साथ गँवई खेल कबड्डी, ओल्हा-पाती आदि खेलने में मस्त हो जाते। एक बार की बात है कि नेता काका स्कूल जाने के लिए कुछ दोस्तों के साथ निकले पर एक बगीचे में लगे ओल्हा-पाती खेलने। उसी दौरान उनके गाँव का एक व्यक्ति उसी रास्ते से होकर बाजार जा रहा था। उसने इन लोगों को उस बगीचे में खेलते देखा। उसे लगा कि शायद अभी स्कूल खुलने में समय होगा इस लिए गाँव के ये बच्चे यहाँ खेल रहे हैं। पर यह क्या, 2-3 घंटे बाद जब वह बाजार करके उसी रास्ते से घर लौटा तो क्या देखता है कि बच्चे तो स्कूल न जाकर अभी भी खेलने में मशगूल हैं। वह तेज साइकिल दौड़ता हुआ अपने घर न जाकर पहले नेता काका के घर गया और उनके बड़े भाई को सारी बात बता दी। नेता काका के भाई, बहुत गुस्सैल, वे लाठी उठाए और सीधे उस बगीचे में पहुँचे। नेता काका को देखते ही वे लाठी तान दिए, अभी वे लाठी से प्रहार करें इसके पहले ही नेता काका गंभीर मुद्रा बनाकर बोल पड़े, भइया! शांत हो जाइए। हम लोग स्कूल गए थे पर स्कूल में छुट्टी हो गई, क्योंकि प्रिंसपल साहब की माँ मर गई हैं। नेता काका की यह बात सुनकर उनके बड़े भाई थोड़े शांत तो हुए पर उन्हें नेता काका की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, वे दूसरे लड़कों के तरफ घुमे और सच्चाई जाननी चाही। मार का डर किसे नहीं डराता। बच्चों ने भी नेता काका के हाँ में हाँ मिला दी। पर नेता काका के बड़े भाई भी कहाँ चुप रहने वाले थे। वे दूसरे दिन सुबह-सुबह नेता काका को लेकर उनके स्कूल पर पहुँच गए। स्कूल पर पहुँचकर वे सीधे प्रिंसपल से मिले और एक दिन पहले (बीते कल) वाली घटना सुना दी। प्रिंसपल तो पूरी तरह से गुस्से में आ गया, क्योंकि बच्चों के छुट्टी (बंक) मारने से उसे उतना गुस्सा नहीं आया, जितना इस बहाने से की बच्चों ने उसकी ही माँ को मार दिया। अब क्या था, प्रिंसपल ने डंडा उठाया और नेताकाका एवं उनके साथ बंक मारने वाले सहपाठियों को खूब धोया। पर संयोग भी अजीब चीज है। प्रिंसपल साहब की माँ 5-6 दिनों से बीमार चल रही थीं और जिस दिन नेता काका की पिटाई हुई उसी दिन रात को वे स्वर्ग सिधार गईं। अपनी माँ का क्रिया-कर्म करके कुछ हप्तों के बाद जब प्रिंसपल साहब स्कूल आए तो सबसे पहले नेता काका को बुलाए और हाथ जोड़कर बोले की नेता तुम जितना चाहो बंक मारो पर किसी के माँ-बाप आदि को मत मारो।
आइए, अब मेरे हिसाब से नेता काका का सबसे दमदार खिस्सा सुनिए। एक बार की बात है कि नेता काका गाँव की कुछ बुजुर्ग महिलाओं (अपनी माँ, काकी आदि) को लेकर इलाहाबाद नहान (धार्मिक दृष्टि से किसी पर्व पर किया जाने वाला स्नान आदि जैसे कुंभ आदि) कराने निकले। वे देवरिया आकर सभी महिलाओं को बरहजिया ट्रेन में बिठाकर बरहज (एक धार्मिक शहर) पहुँच गए। फिर नदी किनारे पहुँचकर उन महिलाओं से बोले कि इलाहाबाद संगम आ गया, आप लोग अब बिना देर किए नहान कर लीजिए। उसमें से अधिकांश महिलाएँ बहुत बार इलाहाबाद गई थीं, उन्हें थोड़ा अजीब लग रहा था कि जिस इलाहाबाद पहुँचने में दसेक (10-12) घंटे लगते हैं, उस इलाहाबाद में हम लोग 2-3 घंटे में ही कैसे पहुँच गए? साथ ही उन्हें इलाहाबाद जैसा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। एक महिला बोल पड़ी की ए नेता, बड़का पुलवा तो नहीं दिख रहा है और ना ही भीड़-भाड़ ही है साथ ही इतना जल्दी हम लोग कैसे पहुँच गए? उस बुजुर्ग महिला की बात सुनते ही नेता काका गंभीर हो गए और बोल पड़े, काकी! आपको पता नहीं है, बहुत बाढ़ आ गई थी, इससे वह पुल तथा साथ ही कितने साधु-संन्यासियों के टेंट आदि गंगाजी में दह गए। और इतना ही नहीं इस बार यह नहान कही जगह लगा है और साथ ही भिनसहरे (अति सुबह) का ही नहान था इसलिए बहुत सारे लोग नहा कर जा चुके हैं। वैसे भी संगम पर नागा साधुओं का स्नान है, इसलिए मैं आप लोगों को लेकर उधर नहीं जा सकता, इधर ही नहाना पड़ेगा। इसके बाद थोड़ा गुस्सा होकर बोले, आप लोगों को तो देश दुनिया की खबर रखनी नहीं है। हम लोग जिस ट्रेन से आए वह विशेषकर इस नहान के लिए ही चलाई गई है और उसकी स्पीड अन्य ट्रेनों की तुलना में चौगुना है, इसलिए हम लोग फटाफट पहुँच गए। इसके बाद थोड़ा धीरा होकर कहने लगे कि पिछली बातों को भूल जाइए और फटाफट नहा लीजिए नहीं तो नहान का समय निकल जाएगा और हम लोगों का आना व्यर्थ जाएगा। फिर क्या था, सभी बुजुर्ग महिलाएँ वहीं स्नान, पूजा-पाठ कीं और फिर घर आ गईं। जय हिंद।

पं. प्रभाकर गोपालपुरिया
9892448922



शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

गरीबों व मजलूमों के पैरोकार थे - शिखरपुरुष स्व. श्री दुर्गा प्रसाद मिश्र (दुरुगा बाबा)

लोकप्रिय, कद्दावर व पूर्वांचली दिग्गज भाजपा नेता श्री दुर्गा प्रसाद मिश्र किसी परिचय के मोहताज नहीं। आज वे हमारे बीच नहीं हैं फिर भी अपने सुकार्यों से, जन कार्यों से वे अपनों के बीच, जनता-जनार्दन के बीच सदा-सदा के लिए अमर हैं। अगर देवरिया जिले की बात करें तो, देवरिया का बच्चा-बच्चा भी इस महान विभूति से पूरी तरह परिचित है। दुरुगा बाबा किसी विशेष पार्टी या विचारधारा के पोषक नहीं थे, अपितु वे तो जमीन से जुड़ें एक ऐसे नेता थे जो सिर्फ व सिर्फ गरीब, मजदूर, किसानों के हित की लड़ाई लड़ते थे और इसके लिए उनकी अपनी विचारधारा सर्वोपरि थी। वे देश, समाज व अपने जिले-जवार के विकास के लिए सदा प्रयासशील रहे। गरीबों व मजलूमों के इस पैरोकार ने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया, भले ही इन्हें किसी पार्टी को राम-राम ही करना क्यों न पड़ा। स्वच्छ राजनीति के पक्षधर श्री मिश्र कभी भी किसी नेता, अधिकारी के आगे झुके नहीं। श्री मिश्र युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत थे। वे चाहते थे कि देश की राजनीति में युवाओं का भी पूरा सहयोग हो, क्योंकि उनका मानना था कि देश को, समाज को अगर विकास के पथ पर तेजी से दौड़ाना है तो युवाओं की भागीदारी अति आवश्यक है। वे शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। वे चाहते थे कि सबको उचित शिक्षा सुलभ हो ताकि एक ऐसे समाज का निर्माण हो सके जो शिक्षित व नैतिक आधार पर पूरी तरह से मजबूत हो। श्री मिश्र आजीवन गरीब, किसान, समाज, पूर्वांचल, प्रदेश के विकास के लिए समर्पित रहे। खुले विचारों के धनी श्री मिश्र की संवाद शैली बहुत ही अद्भुत और बेजोड़ थी जो किसी को भी सहजता से प्रभावित कर जाती थी। जमीन से जुड़ा यह जननेता महान राष्ट्रभक्त भी था। जब भी राष्ट्र की बात आती थी तो बाकी बातें इनके लिए गौण हो जाती थीं।
इस महान जननेता का जन्म 29 अक्टूबर 1942 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के बरहज तहसील में एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनकी माता का नाम श्रीमती गुंजेश्वरी देवी एवं पिता का नाम पंडित श्री कमला प्रसाद मिश्र था। माँ गुंजेश्वरी देवी एक धर्मपरायण व सहज स्नेही महिला थीं और धर्म-कर्म के साथ ही अपनी मृदु व्यवहार से सबको अपना बना लेती थीं। यह एक ऐसा परिवार था जिसके दरवाजे से कोई भी जरूरतमंद वापस नहीं जाता और उसकी जरूरतें सहर्ष पूरी करने का प्रयत्न किया जाता। पिता श्री कमला प्रसाद मिश्रजी सदा गाँव-जवार-जिले के लोगों की मदद करने के लिए तत्पर रहते। पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के बाद श्री दुर्गा प्रसाद मिश्रजी कोऑपरेटिव सलेमपुर शाखा में कैशियर के पद पर कार्य करना आरंभ किए। पर जिसके जेहन में गरीबों की सेवा करने की, समाज की सेवा करने की, समाज को एक नई उन्नत दिशा देने की सरिता उफान के साथ प्रवाहित हो रही हो, उसे भला नौकरी क्यों रास आए। अंततः मन पर विवेक की जीत हुई और समाज सेवा का व्रत लिए इस जननेता ने नौकरी छोड़ दी। युवा श्री मिश्र के जाहने वालों की सूची बहुत ही तेजी से बढ़ती जा रही थी। गाँव-जवार के लोगों को श्री मिश्र में एक ऐसे जमीन से जुड़े, कद्दावर, ईमानदार जननेता की छवि दिखाई देती थी कि मन ही मन वे लोग इन्हें एक नेता के रूप में स्थापित करने का मन बनाने लगे थे। आखिरकार क्षेत्रीय जनता-जनार्दन की इच्छा का सम्मान करते हुए श्री मिश्र राजनैतिक समर में कूद पड़े। वैसे भी जनता का भरपूर साथ जिसे हो उसे कौन रोक सकता है।
यह भी सत्य है कि उस समय देश की राजनीति पूरी तरह से कांग्रेस के अधीन थी। कांग्रेस का एकछत्र राज्य था भारतीय राजनीति पर। पर यह जुझारू जननायक, कांग्रेस पार्टी की इस एकछत्रता की परवाह किए किए बिना, कांग्रेस की प्रसिद्धि से निडर होकर 1980 में जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में सलेमपुर विधान सभा क्षेत्र (देवरिया जिला) से चुनाव मैदान में कूद पड़ा। इस जननेता को मिला जनता का भरपूर अदम्य सहयोग कांग्रेस को पूरी तरह से ले डूबा और साथ ही अन्य प्रत्याशियों को भी। श्री मिश्र के सर पर जीत का सेहरा सज चुका था। दुर्गा बाबा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस चुनाव में चुनावी मैदान में उतरे सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी। उत्तर-प्रदेश में उस चुनाव में जनसंघ से सिर्फ दो ही जननेता लखनऊ पहुँच पाए थे, एक थे कल्याण सिंह और दूसरे दुर्गा प्रसाद मिश्र। इस जीत के साथ ही श्री दुर्गा प्रसाद मिश्र की गणना प्रदेश के लोकप्रिय नेताओं में होने लगी तथा साथ ही पूर्वांचल की राजनीति में श्री मिश्र एक प्रचंड सूर्य की तरह उदित हो गए थे।
भारतीय जनता भावुकता की पुजारी है। भावुकता में बहकर ये कब किसके सिर पर जीत का ताज बाँध दे, कहा नहीं जा सकता। भावुकता में यह कभी-कभी अपनों को, सच्चों को भी नजरअंदाज कर देती है और विवेक पर दिल को हावी करते हुए भेड़ियाधसान पर उतारू हो जाती है। जी हाँ 1985 के चुनाव में भी यही हुआ। स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी की मौत से उपजी सहानुभूति की नैया पर सवार कांग्रेस ने जीत की लहरों पर अपना नियंत्रण कर लिया और इस चुनाव में बरहज से चुनाव लड़ रहे श्री मिश्र को हार का सामना करना पड़ा। खैर इस हार से श्री मिश्र का मनोबल और भी मजबूत हुआ और ये तन-मन-धन से जनसेवा करते रहे। जनता के रहनुमा बने रहे। 1991 के चुनाव में बरहज विधानसभा क्षेत्र (देवरिया जिला) से भाजपा ने इन्हें अपना उम्मीदवार घोषित किया। जनता का भरपूर सहयोग तो था ही श्री मिश्र के साथ, साथ ही उस समय देश में रामलहर चल रही थी। ऐसे में श्री मिश्र का जीतना पूरी तरह तय था। उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुँचा यह जुझारू व सुविचारों का धनी जननेता, मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की मनमानी को खुली चुनौती देते हुए 54 विधायकों की परेड माननीय राज्यपाल के वहाँ करा कर अपनी शक्ति और लोकप्रियता का एहसास करा दिया। इतना ही नहीं इस ईमानदार, सत्यनिष्ठ जननेता ने विपक्ष द्वारा अपने को मुख्यमंत्री बनाए जाने के आमंत्रण को ठुकराते हुए अपनी पार्टी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि कर दी। इससे इनकी सशक्तता, जुझारूपन में और निखार आ गया और अपने सहयोगियों के साथ ही विपक्षी भी इनके कायल हो गए। बाद में इन्हें डेयरी फेडरेशन का अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया। 1999 में कल्याण सिंह सरकार में इन्हें प्रादेशिक क्वापरेटिव फेडरेशन का अध्यक्ष बनाया गया।

2001 में परिस्थितियाँ कुछ ऐसे बनी कि अपनी ही पार्टी, अपने ही लोगों ने थोड़ी इनकी उपेक्षा करनी शुरू कर दी। कुछ अपनों ने भीतरघात करके इन्हें कमजोर करना चाहा। पर यह जननेता कहाँ दबनेवाला था, यह अपनी विचारधारा का झंडा ढोना ही उचित समझा। पार्टी ने बिना समझे इस जननेता को पार्टी से 6 साल के लिए निलंबित कर दिया। पार्टी के इस रवैये से आहत श्री मित्र अपने सभी पदों से त्याग-पत्र दे दिए। पर इस जननेता को क्षेत्रीय जनता का भरपूर समर्थन मिलता रहा, जिसके चलते 2002 के विधान सभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में बरहजी जनता ने इन्हें सर-आँखों पर बिठाते हुए इनके सिर पर जीत का सेहरा बाँध दिया। इस चुनाव में जीत का अंतर देखते हुए विपक्षियों को पूरी तरह से मुँह की खानी पड़ी एवं इनकी लोकप्रियता, जुझारूपन का लोहा मानना पड़ा। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तथा श्री मुलायम सिंह मुख्यमंत्री। इस सरकार में श्री मिश्र कैबिनेट मंत्री बने पर किसी भी तरह से माननीय मुख्यमंत्री व उनकी पार्टी को अपने पर हावी नहीं होने दिया। इसके बाद 2012 में श्री मिश्र पीस पार्टी ज्वाइन किए और इस पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए गए। इनके अन्य पार्टियों में जाने के दौरान भी भाजपा के बड़े नेता इनके संपर्क में रहे तथा इन्हें बार-बार भाजपा में वापसी करने का अनुरोध करते रहे। अंततः पीस पार्टी से नाता तोड़ते हुए 15 जून 2013 को श्री मिश्र की भाजपा में वापसी हुई। भाजपा में इनकी वापसी से भाजपा तो मजबूत हुई ही साथ ही क्षेत्रीय जनता में भी खुशी की लहर दौड़ गई। क्षेत्रीय भाजपा कार्यकर्ताओं की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और श्री मिश्र की वापसी पर इनका जोरदार स्वागत किया गया।
17 फरवरी 2014 को यह जुझारू, ईमानदार जननेता सदा के लिए अपनों से दूर हो गया पर अपने स्वर्णिम व्यक्तित्व, कृतित्व से राजनीतिक नेतृत्व का यह दीप्त सूर्य एक ऐसी छाप छोड़ गया जो सदा इसके होने का भान कराती रहेगी। इसके अमरत्व के गुणगान आम जनता में गाए जाते रहेंगे। इसकी कर्मठता, जुझारुपन और समाज सेवा की ललक की चर्चा चिरकाल तक घर-घर में होती रहेगी। इसके बताए हुए मार्ग का अनुसरण करते हुए युवा देश, समाज को एक नई उन्नत दिशा देने में सफल होते रहेंगे और अपने कर्म-पथ पर ईमानदारी और निडरता से अनवरत आगे बढ़ते रहेंगे।
(विशेष सहयोग- श्री ज्योति मिश्रजी राका और श्री अमरेंद्र मिश्रजी)
पं. प्रभाकर गोपालपुरिया



गुरुवार, 16 मई 2013

देवरियाई युवाओं के लिए एक और प्रेरणास्रोत- चंद्र प्रकाश

हमारी कोशिश रहती है कि देवरिया संबंधी उन हर बातों को, विचारों को यहाँ रखा जाए जिससे प्रेरणा लेकर या जिसको संज्ञान में लेकर देवरियाई देवरिया को देवरिया (देव+एरिया) बनाने के लिए कृत संकल्पित हों। 
देवरिया के सर्वागीण विकास के प्रति आगे आएँ और राष्ट्रीय ही नहीं अपितु अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देवरिया को स्थापित करें। युवा अगर सकारात्मक सोच व दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ अपने कर्मपथ पर आगे बढ़े तो कोई भी लक्ष्य दूर नहीं।
                  
 कर्मनिष्ट, कर्मयोगी के मार्ग में आने वाले काँटे भी पुष्प बन जाते हैं,
                                           लाख हो परेशानियाँ मगर वे अपनी मंजिल पा ही जाते हैं।

जी हाँ, एक ऐसा ही युवा है श्री चंद्र प्रकाश। चंद्रप्रकाश पांडेय ने लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित बाट एवं माप तौल निरीक्षक की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। चंद्रप्रकाश शिक्षण कार्य का निर्वाह करते हुए अपने तीसरे प्रयास में इस मंजिल को हासिल किया है। वे दो बार आइएएस मेंस की परीक्षा में भी शामिल हो चुके हैं। इस उपलब्धि का श्रेय वे अपने माता-पिता और भाई को देते हैं। श्री चंद्र प्रकाश पांडेय देवरिया जिले के रामपुर कारखाना क्षेत्र के  पिपरहिया भरथ गाँव के रहने वाले हैं। हार्दिक बधाई।।


साभार- जागरण

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

गोरख पांडेय : देवरियाई कवित्व का सूरज

आप कहाँ के रहनेवाले हैं?
"देवरिया"।
कहाँ है यह?
उत्तरप्रदेश का एक पूर्वी जिला है।
गोरखपुर के पास है क्या?
जी हाँ, और कुशीनगर तो आपको पता ही होगा। पहले कुशीनगर देवरिया का ही भाग था।
तो सीधे कहिए ना गोरख पांडे के क्षेत्र से हैं। गोरख पांडे के नाम लेते ही पता नहीं क्यों उस कविवर महोदय के चेहरे पर एक असीम पीड़ा के दर्शन हुए।
कौन थे ये गोरख पांडेय? कोई कवि, लेखक, रचनाकार...देवरिया को भले न जाने पर इस व्यक्तित्व से परिचित है।
गोरख पांडेय का जन्म उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले के पंडित के मुंडेरवा गाँव में हुआ था।
इस देवरियाई के बारे में अगर आप विस्तार से जानना चाहते हैं तो निम्न लिंकों का अनुसरण करें-
पांडेजी की रचनाएँ

पांडेजी के परिचित क्या कहते हैं?

पांडेजी की याद में

निज घर- पांडेजी की डायरी

शत-शत नमन।।।

शनिवार, 14 मई 2011

देवरिया का एक और प्रताप : सूर्यप्रताप


सही दिशा में साकारात्मक चिंतन के साथ किया गया परिश्रम कभी विफल नहीं होता। परिश्रमी के लिए कुछ भी असंभव नहीं होता क्योंकि सच्चा परिश्रमी अगर कोई स्वप्न देखता है तो उसे चरितार्थ करने का दमखम भी रखता है। हाँ पर यह बहुत ही आवश्यक है कि आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति के प्रति सत्यनिष्ठ हों।
आइए, आज मैं आपको देवरिया को गौरवांवित करनेवाले, अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार युवा श्री सूर्यप्रताप यादव से मिलवाता हूँ। मुझे बताते हुए अपार हर्ष हो रहा है कि इस युवा ने इस वर्ष आई.ए.एस. परीक्षा के घोषित परिणाम में 402वाँ रैंक प्राप्त कर देवरिया, देवरियाई युवाओं का नाम रोशन किया है।
सूर्यप्रतापजी शुरु से ही अपने कर्तव्य के प्रति पूरे निष्ठावान थे एवं अपने निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सत्यनिष्ठा के साथ परिश्रम करते रहे। उनको पता था कि सच्चे मन से किया गया परिश्रम कभी बेकार नहीं जाता। उनकी कड़ी मेहनत रंग लाई और अपने तीसरे प्रयास में उन्होंने अपना निर्धारित लक्ष्य हासिल करने के साथ ही अपने एवं अपनों के सपने को साकार कर दिया।
देवरिया को गर्व है इस युवा परिश्रमी पर। आज देवरियाई युवाओं को सूर्य प्रतापजी के पग-चिह्नों पर चलते हुए अपने सपने को साकार करने के लिए ईमानदारी के साथ परिश्रम करना चाहिए और कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे जनपद ही नहीं पूरा राष्ट्र गौरवांवित हो।

बहुत-बहुत बधाई सूर्य प्रताप जी को।

बुधवार, 16 मार्च 2011

वैज्ञानिक राजेश मिश्र ने वैज्ञानिक दृष्टि से विश्व स्तर पर देवरिया को दिलाई प्रसिद्धि

आज राजेश मिश्रजी किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं। इन्होंने राष्ट्र के साथ ही साथ अपनी जन्मभूमि देवरिया को भी गौरवांवित किया है। इस बहुमुखी प्रतिभासंपन्न वैज्ञानिक को अमेरीका की प्रसिद्ध पत्रिका 'हू इज हू इन द व‌र्ल्ड बायोग्राफी' ने सम्मानित करने की दृष्टि से इनका पूरा जीवन-परिचय अपने 28वें संस्करण में प्रकाशित करने का निर्णय लिया है। इस सम्मान के साथ ही माननीय मिश्रजी विश्व की मानी-जानी हस्तियों में शामिल हो गए हैं। हमें गर्व है इस महान व्यक्तित्व पर। इस महान वैज्ञानिक पर। माननीय मिश्रजी स्थिर ऊर्जा विभाग (डिपार्टमेंट आफ स्टेटिट इनर्जी) का एक्सीलेंस एवार्ड भी प्राप्त कर चुके हैं।
राजेश मिश्रजी मानी-जानी भारतीय परमाणु अनुसंधान संस्था 'भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र' मुम्बई में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। ये वर्तमान में "भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र अधिकारी संघ" के निर्विरोध निर्वाचित अध्यक्ष भी हैं। माननीय मिश्रजी देवरिया जिले के भाटपाररानी विकास खंड के सिरसिया मिश्र गाँव के मूल निवासी हैं। इनके पिताजी माननीय राजेंद्र मिश्रजी एक ख्यातिलब्ध भाषाविद् हैं।


- प्रभाकर पाण्डेय
(दैनिक जागरण के एक समाचार पर आधारित)

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

राष्ट्र एवं शिक्षा के पुजारी: महान समाजसेवी रामजी सहाय

राष्ट्र-प्रेम की पावन धारा से सिंचित देवरिया भूमि सदा से ही वीरों की जननी रही है। यहाँ के वीर जवानों ने, माँ भारती के सच्चे भक्तों ने देश-प्रेम की अलख को सदा अपने हृदय में जगाए रखा एवं अपने जान की परवाह न करते हुए अपने राष्ट्र एवं संस्कृति की रक्षा की।
देवरिया की पावन भूमि में सदा ही राष्ट्र-प्रेम का पौध पल्लवित एवं पुष्पित होता रहा है। यहाँ कुछ ऐसे सपूत भी पैदा हुए जो राष्ट्र-प्रेम के साथ ही साथ समाज, संस्कृति, शिक्षा के भी महान प्रेमी थे। उन्हें पता था कि अगर राष्ट्र, समाज का विकास करना है तो पहले शिक्षा को मजबूत करना होगा। क्योंकि एक शिक्षित समाज ही राष्ट्र के विकास को, संस्कृति के विकास को एक नई ऊँचाई दे सकता है।
ऐसे ही एक राष्ट्र-भक्त थे महान समाज सेवी रामजी सहाय। रामजी सहाय का जन्म देवरिया के रूद्रपुर विकास-खंड में हुआ था। ये गाँधीजी के बहुत प्रिय एवं विश्वासी थे। इस सेनानी को 1932 में जेल की हवा खानी पड़ी पर अब तो यह निडर एवं निर्भीक राष्ट्रभक्त माँ भारती के बेड़ियों को काटने के लिए सेनानियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना शुरु कर दिया था। अब इसे कैद की परवाह नहीं थी। गाँधीजी ने 3 जून 1935 को इनके नाम एक पत्र लिखा जिसके माध्यम से गाँधीजी ने इन्हें अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ गोरखपुर मंडल में आवाज उठाने के लिए आह्वान किया था। यह महान गाँधीवादी यह अपना सौभाग्य समझा एवं गाँधीजी के निर्देश में कार्य करने लगा। 1942 में भौवापार में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध प्रदर्शन के दौरान इन पर बरसी अंग्रेजी सिपाहियों की लाठियों ने इनके साहस को तोड़ने के बजाय इनमें राष्ट्रप्रेम की धारा को और तेजी के साथ प्रवाहित कर दिया।
माँ भारती का यह सपूत 7 बार जेल की सैर किया पर अपने मजबूत इरादों एवं माँ भारती के प्रति सच्ची निष्ठा को कम नहीं होने दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1952 के आम चुनाव में यह जनप्रिय नेता एवं राष्ट्रपुजारी रूद्रपुर से पहला विधायक बना। माँ भारती तो अब स्वतंत्र थीं पर अब जो आवश्यक काम था वह यह कि शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो। भारतीय जनमानस का कल्याण हो। इस महान समाजसेवी ने शिक्षा का अलख जगाते हुए रूद्रपुर में एक इंटर कालेज एवं एक डिग्री कालेज की स्थापना कर डाली। यह महान दानी लोगों में उस समय और भी प्रिय हो गया जब इसने डिग्री कालेज की स्थापना के समय पैसे की कमी के चलते अपनी पत्नी श्रीमती सुमित्रा देवी के आभूषण एवं अपनी रिवाल्वर तक बेंच दी। इंटर कालेज एवं डिग्री कालेज के खुलने से इस क्षेत्र के साथ ही साथ अन्य क्षेत्र के बच्चों को भी उच्च शिक्षा मिलनी शुरु हो गई।
धन्य है यह माँ भारती का सच्चा सपूत जो संतानहीन होने पर भी शिक्षा के महत्त्व को समझता था और हर बालक, किशोर को शिक्षित करना चाहता था। हर व्यक्ति इनके लिए अपना ही था। इसी लिए तो क्षेत्र की जनता इनसे अपार स्नेह एवं श्रद्धा रखती थी।
माँ भारती का यह सच्चा भक्त एवं गाँधीवादी 27 जुलाई 1975 को सदा के लिए माँ की गोद में सो गया एवं माँ की आँखों के साथ ही साथ इस क्षेत्र के जन-मानस की आँखों को अश्रुपूरित कर गया। आज यह महान समाजसेवी हमारे बीच नहीं है पर इसके कार्य सदा-सदा के लिए इसे अमर कर गए एवं भारतीयों विशेषकर देवरियाइयों के हृदय में इसके प्रति श्रद्धा एवं सम्मान भर गए।
प्रेम से बोलिए महान राष्ट्रपुजारी एवं समाजसेवी रामजी सहाय की जय।
भारत माता की जय।।
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-प्रभाकर गोपालपुरिया

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

आपने भी तो दिलाई है देवरिया को सुप्रसिद्धि...फिर आपकी आँखों में वेदना क्यों?


कभी-कभी अत्यधिक वेदना से घिर जाता हूँ....लगता है काश मैं भी देवरिया के लिए, देवरियाई जनता के लिए कुछ कर पाता। और ये परिस्थिति तो उस समय और मेरे मन को हिलाकर रख देती है जब योग्य व्यक्ति को भी निराश...हतास देखता हूँ।
ऐसे लोग जिन्होंने जनपद को, देश को, समाज को गौरवांवित किया और आज खुद जनपद, देश, समाज उनकी खैर पूछने से कतरा रहा है, उनके कंघे पर अपना सांत्वनाभरा हाथ रखने से घबरा रहा है। देवरिया के जनप्रतिनिधि, पूँजीपति, बड़े अधिकारी अगर चाहें तो इन योग्य लोगों को सम्मान के साथ ही साथ एक खुशहाल जीवन जीने को मिले।


जब कभी मैं राजबलिजी के बारे में सोचता हूँ तो व्यथित हो जाता हूँ। आप भी अगर इस देवरियाई से मिलेंगे तो इनकी व्यथा-कथा सुनकर अपनी आँखों को गीली होने से नहीं रोक पाएँगे। जानना चाहेंगे आप राजबलिजी के बारे में? अगर आप सहमति में सिर हिला रहे हैं तो सुनिए-


देवरिया जनपद के रुद्रपुर विकास-खंड के अंतर्गत पिपरा कछार नामक गाँव के निवासी राजबलिजी भले विकलांग हैं पर अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति एवं कर्मठता के बल पर इन्होंने विशिष्ट खेलों में 10 स्वर्ण, 4 रजत एवं एक कांस्य पदक हासिल किया है।
अपने दोनों पैर मात्र चार वर्ष की अवस्था में एक ट्रेन दुर्घटना में खो चुके इस संकल्पित व्यक्ति ने बी.ए. तक की शिक्षा अर्जित करने के बाद खेलों में अपनी प्रतिभागिता बढ़ाई। इनके तैराकी के चर्चे तो गाँव-जवार से निकलकर देश-प्रदेश में गुंजायमान होने लगे। अब तो यह युवा खिलाड़ी खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने लगा एवं जनपद, देश को गौरवांवित करने लगा।


1980 में लखनऊ में हुए राष्ट्रीय विकलांग खेल में क्रिकेट फेंकने में इनको प्रथम पुरस्कार मिला। फिर उसके बाद तो इन्होंने तैराकी, गोला क्षेपण, कुश्ती आदि में कई पुरस्कार अपने नाम किए। खेलों में इनकी निपुणता को देखते हुए 1981 में इन्हें जापान से बुलावा आया और इस कर्मठी देवरियाई ने अपनी खेल-प्रतिभा से सबको मोहित करते हुए तैराकी एवं 60 फुट गोला क्षेपण में प्रथम आते
हुए दो स्वर्ण पदक अपने नाम कर लिया। 1982 में इन्हें हांगकांग जाने का अवसर मिला और वहाँ भी इस योद्धा ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हुए 1 स्वर्ण एवं 2 रजत पदक झटका। इसी साल हांगकांग में ही व्हिल चेयर दौड़ में इन्हें कास्य पदक भी मिला।


इतने सारे पदकों पर कब्जा जमानेवाले राजबलिजी की आँखें आज निराशाभरी क्यों? वेदनाभरी क्यों?  क्या अब राजबलिजी को अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए इन पदकों को बेचना पड़ेगा? अगर सरकार कुछ नहीं कर सकती तो क्या देवरिया में ऐसा कोई नहीं है जो इस व्यक्ति की आँखों में आशा की झलक पैदा कर सके? स्वर्ण पदक विजेता होने के बाद भी यह खिलाड़ी-योद्धा गरीबी में जीने पर विवश क्यों? इस गौरवप्राप्त खिलाड़ी को आज धरना देने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है?


आज यह महान खिलाड़ी बहुत कुछ की उम्मीद लगाए नहीं बैठा है...यह तो बस यह चाहता है कि बुढ़ापे में उसे एवं उसके परिवार को शांतिपूर्ण रूप से दो जून की रोटी मिले, उसकी बच्ची को शिक्षा मिले। इसके लिए भी यह सरकार से पैसा नहीं चाहता, यह तो बस यही चाहता है कि इसकी पत्नी को कोई रोजगार या नौकरी मिल जाए ताकि इनका बाकी जीवन आराम से कट जाए।


आइए, और ऐसे लोगों के जीवन को सुखमय बनाइए जिन्होंने देश, जनपद, समाज को गौरवांवित किया है। आशा है ऐसे व्यक्ति की सहायता करके आप बहुत ही सुख-शांति का अनुभव करेंगे।। जय हो।।


निहोराकर्ता-
एक आम देवरियाई
प्रभाकर पाण्डेय

आपकी मेहनत को नमन- देवरिया को गर्व है आप पर


हर साल देवरिया के कई युवा अपनी कड़ी मेहनत के बल पर एक नई मंजिल हासिल कर लेते हैं और मेहनती युवाओं के लिए आदर्श बन जाते हैं। वे अपने, परिवार आदि की प्रतिष्ठा बढ़ाने के साथ ही साथ जनपद का नाम भी रोशन कर देते हैं।
देवरिया की माटी कर्मठी एवं बुद्धिमत्तापूर्ण उर्वरक से पटी हुई है केवल आवश्यकता है तो अपने आप को समझने की एवं कर्तव्य-मार्ग पर मजबूत इच्छा-शक्ति के साथ आगे बढ़ने की।
हम यहाँ ऐसे ही कुछ मजबूत इच्छा-शक्ति वाले युवाओं की बात करने जा रहे हैं जिन्होंने मेहनत के बल पर अपना लक्ष्य हासिल करके खुद को एवं देवरिया को एक नई पहचान दी है।

आइए, पहले मैं आपको पी.सी.एस. 2008 उत्तीर्ण नरेंद्रजी से मिलवाता हूँ जिनका चयन एस.डी.एम.पद पर हुआ है।
जी हाँ नरेंद्रजी देवरिया जनपद के बैतालपुर विकास-खंड के बरनई गाँव के निवासी हैं। इनका पूरा नाम श्री नरेंद्र बहादुर सिंह एवं इनके पिता का नाम श्री हरिहर सिंह है। पी.सी.एस. 2008 की परीक्षा में उपने पहले ही प्रयास में इन्होंने दसवाँ रैंक हासिल करके देवरिया जनपद को गौरवांवित किया है।
देवरिया की जनता की ओर से इन्हें हार्दिक बधाई।
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अब मैं आप लोगों को सर्वेशजी से परिचित कराता हूँ। इन्होंने ने भी पी.सी.एस. 2008 परीक्षा उत्तीर्ण की है एवं इनका चयन डिप्टी कमिश्नर (व्यापार कर) के पद पर हुआ है।
सर्वेश गौतम का जन्म 20 दिसंबर 1981 में हुआ था। इनके पिताजी श्री छेदी प्रसादजी एक वकील हैं एवं देवरिया शहर के अंबेडकर नगर के निवासी हैं। सर्वेशजी की प्राथमिक से दसवीं तक की पढ़ाई-लिखाई नवोदय विद्यालय कुशीनगर में हुई।
पी.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण करने पर देवरिया की जनता की ओर से इन्हें हार्दिक बधाई।
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आइए अब मिलते हैं सुबोध कुमारजी। इन्होंने ने भी पी.सी.एस. 2008 परीक्षा उत्तीर्ण करके देवरिया का नाम रोशन किया है एवं इनका चयन डिप्टी एस.पी. के पद पर हुआ है। सुबोध कुमार जी बरहज निवासी श्री बलदेव प्रसाद जायसवाल के पुत्र हैं।  पी.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण करने पर देवरिया की जनता की ओर  से इन्हें हार्दिक बधाई।
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देवरिया की कन्याओं ने भी अपने मेहनत से अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हुए इस जनपद का मान-सम्मान बढ़ाया है। देवरिया के विकास, प्रसिद्धि में महिलाओं का भी अहम योगदान है और मुझे तो यह लगता है कि यह पुरुषों से कहीं अधिक है।
आइए इसी क्रम में मैं आपको रेनू पासवान से मिलवाता हूँ।
रेनूजी ने अपनी प्रतिभा के बल पर भारतीय एअरपोर्ट में एक्जीक्यूटिव इलेक्ट्रानिक्स का पद हासिल किया है। अगस्त 1990 में जन्मी रेनू की पढ़ाई देवरिया के ही कस्तूरबा बालिका इंटर कालेज से हुई है। बारहवीं के बाद इन्होंने नोयडा से बीटेक किया।
देवरिया की जनता की ओर से इन्हें बहुत-बहुत बधाई।
आप भी अपनी लड़की को पढ़ाइए एवं सभ्य, सुशिक्षित समाज बनाइए।।
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आप क्या सोच रहे हैं....उठिए...जागिए...एवं अपने सुलक्ष्य की प्राप्ति के लिए कर्म में लग जाइए। कुछ भी असंभव नहीं। मुझे पता है एकदिन आप भी देवरिया क्या पूरे भारत का नाम रोशन करेंगे।
जय देवरिया।।






मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

योगिराज अनंत महाप्रभु: देवरिया को बनाया योग एवं राष्ट्र-भक्ति का केंद्र


देवरिया एक ऐसे मनीषी के चरणों से पावन है जो योगी के साथ-साथ सच्चा राष्ट्र पुजारी था। जिसने देवरिया में योग-वैराग्य, अध्यात्म के साथ-साथ राष्ट्र-प्रेम की गंगा को प्रवाहित किया था। इस सच्चे मनीषी के वचनों से प्रभावित होकर बाबा राघवदासजी ने इसे अपना सच्चा गुरु स्वीकार किया था। यूं तो देवरिया अनेक राष्ट्र-भक्तों, समाजसेवियों, शिक्षाविदों, राजनेताओं एवं संतों की नगरी रही है पर योगिराज अनंत महाप्रभु जैसे बहुत कम विलक्षण महापुरुष इस क्षेत्र को अपने चरणों से पावन किए हैं, लोगों में अध्यात्म एवं योग का संचार किए हैं।
अनंत महाप्रभु का जन्म सन 1777 में लखनऊ के सहादतगंज मुहल्ले में एक संभ्रांत वाजपेयी परिवार में हुआ था। चूँकि इनका जन्म अनंत चतुर्दशी के दिन हुआ अस्तु इनके पिताश्री श्री सुनंदन बाजयेपी ने इनका नाम अनंत रख दिया। ये बचपन से ही सत्य के समर्थक एवं राष्ट्र के पुजारी थे।
क्रांतिकारी अनंत के योगिराज अनंत महाप्रभु बनने की घटना बहुत ही रोचक है। एक बार की बात है कि अनंत के बाग में एक मोर नृत्य कर रहा था तभी वहाँ एक अंग्रेज आ गया और उसने अपनी क्रूरता का परिचय देते हुए उस मोर को गोली मार दी। मोर के तो प्राण-पखेरू उड़ गए पर यह दृश्य अनंत को एकदम हिलाकर रख दिया। अनंत ने तुरंत ही अपने जमादार मोकम सिंह को ललकारकर कहा कि इस दुष्ट फिरंगी को गोली मार दो। अनंत का आदेश मिलते ही मोकम सिंह ने एक विश्वासभक्त सैनिक की भाँति फिरंगी पर गोली दाग दी। गोली लगते ही फिरंगी लहूलुहान होकर जमीन पर गिर पड़ा एवं अनंत मोकम सिंह के साथ नौ दो ग्यारह हो गए। यह केस कुछ दिनों तक चला और उसके बाद अनंत इससे बरी हो गए।
अनंत के विलक्षण हाव-भाव को देखते हुए इनके पिता ने इनका ध्यान घर की ओर लगाने के लिए बालपन में ही इनकी शादी कर दी। पर अनंत अधिक दिनों तक मोह-माया में बँधे न रह सके एवं 16 वर्ष की आयु में अपने परिवार को त्यागकर वैराग्य धारण कर लिए। वैराग्य लेने के पीछे इनकी देश एवं समाज सेवा की ललक साफ दिखती है। इस वैरागी के दिल में माँ भारती को स्वतंत्र कराने की आग धधक रही थी।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में इन्होंने गुप्त रूप से स्वतंत्रता सेनानियों की खूब सहायता की। यहाँ तक कि मंगल पांडेय से भी इनकी गहरी दोस्ती थी। अनंत की यह गतिविधियाँ अंग्रेजों से छुपी नहीं रहीं और अंग्रेजों ने इनकी खोज तेज कर दी। अनंत ने भी अंग्रेजों से बचने का रास्ता निकाल लिया। अब वे साधू वेष में रहने लगे।
कहा जाता है कि 99 वर्ष की अवस्था में अनंत महाप्रभु बरहज (देवरिया) पधारे एवं यहाँ गौरा गाँव के बेचू साहू के बाग को अपना आसियाना बना लिए। यहाँ उन्होंने योग साधना शुरु कर दी। कहा जाता है कि इनकी योग साधना का प्रभाव इस बाग के पेड़-पौधों पर इस तरह पड़ा कि जो पेड़ सूख गए थे वे फिर से पनप उठे, उनकी डालियाँ हरिहरा गईं। इस बात की भनक जब गाँव-जवार के लोगों को पड़ी तो इनके दर्शन के लिए लोगों की भीड़ उमड़ने लगी। इस दिव्य पुरुष की एक झलक पाने के लिए एवं इनकी सेवा के लिए भक्त हाथ जोड़े खड़े रहने लगे। इन्होंने अपनी योग साधना जारी रखी। ये अपनी योग साधना के दौरान केवल गाय के दूध का सेवन करते थे। इन्होंने लगभग 40 वर्षों तक देवरिया की इसी पवित्र भूमि को अपनी योग साधना से साधित करते हुए योग की गंगा बहाते रहे एवं सदा अपने सेवकों, भक्तों से कहते रहे कि योग-साधना कोई प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। इसका उपयोग आत्म कल्याण के साथ ही साथ विश्व कल्याण के लिए होना चाहिए।
इनके बारे में एक और बहुत ही रोचक कहानी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि सरयू के पास रहते हुए भी ये कभी सरयू में स्नान करने नहीं गए। एक बार की बात है कि इनके परम भक्त द्वारिका प्रसाद कुछ भक्तों के साथ इनके दर्शन को गए और इनसे प्रार्थना किए कि महाराज, सरयू के पास रहते हुए भी कभी किसी ने आपको सरयू में स्नान करते हुए नहीं देखा। इसका क्या कारण है? द्वारिकाजी की बातों को सुनकर योगिराज अनंत महाप्रभु मुस्कुराए और प्रेम से बोले। आपने कभी देखा है क्या, किसी बच्चे को माँ के पास जाते हुए। माँ तो खुद ही अपनी संतान से मिलने के लिए सदा आतुर रहती है। और यह क्या? कहते है कि उनके इतना कहते ही द्वारिकाजी और अन्य भक्तों को लगा कि वे लोग सरयू की तेज धार में बह रहे हैं। ऐसे चमत्कारिक एवं ईश्वरभक्त थे योगिराज अनंत महाप्रभु।
यह महान योगी एवं राष्ट्रभक्त 140 वर्ष की अवस्था में सदा के लिए समाधिस्थ हो गया। आज भी इनकी मूर्ति बरहज स्थित परमहंस आश्रम में विराजमान है। इनके दर्शन के लिए भक्तों की भीड़ लगी रहती है। धन्य है देवरिया का यह बरहजी क्षेत्र जहाँ ऐसे दिव्य योगी के पावन चरण ने इस क्षेत्र की मिट्टी को सदा-सदा के लिए स्वर्गिक आनंद से परिपूर्ण बना दिया।
आज भी बरहज (देवरिया) का यह परमहंस आश्रम ईश्वर भक्तों एवं राष्ट्र भक्तों के लिए प्रेरणा एवं गौरव का केंद्र है। यह एक साधक से सिद्ध बने महायोगी के जीवनी को समेटे होने के साथ ही साथ माँ भारती के सपूतों की गाथाएँ सुनाते हुए लोगों का सामाजिक, शैक्षिक एवं नैतिक विकास करता आ रहा है।

प्रेम से बोलिए योगिराज अनंत महाप्रभु की जय। बरहज की जय।। भारत भक्तों एवं संतों की जय।।।।।
-प्रभाकर पाण्डेय

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

आजाद हिंद फौज के वीर बाँकुरे थे देवरिया के आजाद बाबू

आइए आज आपलोगों को माँ भारती के एक सच्चे सपूत देवरिया वासी आजाद बाबू से मिलवाता हूँ। 
आजाद बाबू जी हाँ इसी नाम से तो वे अपनो के बीच जाने जाते थे। माँ भारती के इस सच्चे वीर को उनके जाननेवाले आजाद बाबू ही कहा करते थे। आजाद बाबू का असली नाम श्री (स्व.) रामअधार राव था और इनका जन्म देवरिया के गौरीबाजर विकासखंड के बखरा में 1910 में हुआ था।
गोरखपुर में अपनी प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही इस महान बालक के लहू में सच्चे राष्ट्रभक्त के तत्त्व मिल गए थे और कक्षा 6 में पढ़ने के समय नेताजी (सुभाष बाबू) के विचारों ने इनके लहू में घुले देशभक्त के तत्त्व को पूरी तरह से सक्रिय कर दिया और साथ ही साथ इनके कानों में माँ भारती की पुकार झंकृत होने लगी।
आजाद बाबू 1937 में नेताजी के साथ सिंगापुर में भी रहे ताकि आजाद हिंद फौज की सक्रियता को और अधिक बढ़ाते हुए इसे मजबूत किया जा सके। इसके बाद तो इनकी वीरता और माँ भारती के प्रति सच्ची निष्ठा को देखते हुए 1938 में इन्हें आजाद हिंद फौज में हवलदार के रूप में भर्ती कर लिया गया। माँ भारती के लिए यह सच्चा राष्ट्र पुजारी लड़ाई का बिगुल भी बजाया और जिसके लिए इसे जेल की सैर भी करनी पड़ी।
पर आजादी के बाद के जो सपने इस क्रांतिकारी की आँखों ने देखे थे वे पूरे होते नजर नहीं आए। आजीवन आजाद बाबू वास्तविक भारत निर्माण, एक महान भारत के सपनों को साकार होता न देख बहुत ही विचलित रहे पर अपने आप को आजाद हिंद फौज के एक सेवक के रूप में याद कर के गौरावांतित होते रहे।
जब भी लोग इनसे मिलने जाते थे, ये प्रसन्नता के साथ अपनी यादों को सुनाते-सुनाते भाव-विभोर हो जाते थे। इनके साथ ही साथ सुननेवालों की आँखें भी अश्रुपूरित हो जाती थीं। इनके संस्मरणों को सुन-सुनकर क्या युवा, बच्चे एवं बुजुर्ग भी माँ भारती की जय एवं राष्ट्रभक्तों की जय बोलने से अपने आप को नहीं रोक पाते थे। राजनीति की बात आते ही आजाद बाबू उदास हो जाते थे और एक लंबी साँस लेकर जो कहते थे उसका सार यही है कि आजादी मिलने के बाद राजनेताओं ने धीरे-धीरे एक महान भारत के निर्माण की यज्ञ को जलाए रखने के बजाय उसमें स्वार्थ, गंदी राजनीति का प्रदूषित जल डालकर बुझा दिया। मूल्यों एवं राष्ट्रहित की राजनीति को तिलांजलि दे दी गई एवं चारों तरफ राष्ट्रवाद को गौण करके स्वार्थवश अनेकों गंभीर, राष्ट्रद्रोही समस्याओं का सूत्रपात कर दिया गया।
माँ भारती का यह वीर सपूत जबतक जीवित रहा शान से 15 अगस्त एवं छब्बीस जनवरी को ध्वजारोहण करता रहा इस आस में कि एक दिन इसके सपने साकार होंगे एवं एक स्वच्छ व सुंदर, महान भारत का निर्माण होगा।
15 अगस्त 2010 को यह देवरियाई शतजीवी महान राष्ट्रभक्त सदा के लिए हम सबसे दूर हो गया एवं अपनी वीरता, कर्तव्यनिष्ठा से देशवासियों को देश के प्रति कुछ कर गुजरने की शिक्षा दे गया।
बोलिए इस महान व्यक्तित्व की जय। भारत माता की जय।।


- प्रभाकर पाण्डेय

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

देवरिया जनपद की कृष्ण-जन्माष्टमी

कृष्ण जन्माष्टमी का त्योहार पूरे भारत और विश्व के कुछ अन्य देशों में भी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। कहीं रासलीला का आयोजन होता है तो कहीं बाल-कृष्ण की झाँकी निकाली जाती है। कहीं-कहीं भजन-कीर्तन का आयोजन होता है तो कहीं-कहीं मेलों में देव-देवी की मूर्तियों से पंडाल सजाए जाते हैं। इस प्रकार एक बहुत ही आध्यात्मिक और सौहार्दपूर्ण माहौल का निर्माण हो जाता है।
आइए इस पावन अवसर पर मैं आप महानुभाओं को देवरिया लिए चलता हूँ और देखते हैं कि इस जनपद में कृष्ण-जन्माष्टमी मनाने का स्वरूप कैसा है? देवरियाई जनता क्या-क्या करती है इस अवसर पर.....।
देवरिया के हर थाने, कोतवाली आदि में कृष्ण जन्माष्टमी का समारोह बहुत ही धूम-धाम से मनाया जाता है। इन स्थानों को सजाया जाता है। बाल कृष्ण की झाँकी लगाई जाती है। नृत्य-गायन, भजन-कीर्तन आदि रातभर चलते रहते हैं।
शहरों, कस्बों आदि में जगह-जगह देव-देवी विशेषकर माखनचोर की मूर्तियों को पंडाल में सजाया जाता है और रातभर मेला चलता रहता है। लोगों का हजूम उमड़ता है और भगवान के दर्शन करते हुए मेले का आनन्द उठाता है।
तो अब आइए, थोड़ा ग्रामीण क्षेत्रों की ओर यानि गाँवों की भी सैर करें और देखें कि ग्रामीण जनता-जनार्दन जन्माष्टमी का त्योहार किस प्रकार मनाती है।
कृष्ण-जन्माष्टमी के दिन अधिकांश ग्रामवासी व्रत रखते हैं। यहाँ तक कि छोटे-छोटे बच्चे भी श्रद्धा और उत्साह के साथ व्रत रखते हैं। कुछ बच्चे तो इस आशा में व्रत रखते हैं कि खूब फल, जैसे- सेब, केला आदि और रामदाना, दूध, दही आदि भरपूर मात्रा में खाने को मिलेगा।
इन ग्रामीण क्षेत्रों में कृष्ण जन्माष्टमी को समारोह के रूप में मनाने की तैयारी सुबह जगते ही शुरु हो जाती है। बच्चों का काम फूल-माला आदि तैयार करना और तोरण बनाने के साथ-साथ आम के पल्लव, अशोक के पल्लव केले के पौधे आदि एकत्र करना होता है। जवनका गोल (युवा वर्ग) बुढ़वा गोल (बुजुर्ग वर्ग) की देख-रेख में डोल (एक प्रकार का मंदिर जो कपड़े, रंगीन कागज आदि को एक छोटी चौकी के ऊपर लकड़ी आदि पर चिपकाकर बनाया जाता है) का निर्माण करते हैं। इस डोल को विभिन्न प्रकार के सजावटी सामानों से सजाया जाता है। फिर इस डोल को किसी के घर या मंदिर में रख देते हैं। डोल के अगल-बगल में तोरण आदि के साथ-साथ केले के पौधे, आम, अशोक, कनैल आदि की छोटी-छोटी पल्लवदार टहनियाँ लगाई जाती हैं। यह झाँकी बहुत ही मनमोहक होती है और एक अद्भुत, आध्यात्मिक आनन्द मन में कहीं हिचकोले लेने लगता है। साम होते ही इस डोल में बाल कृष्ण की मूर्ति या फोटो आदि के साथ अन्य देवी-देवता के फोटो भी रखे जाते हैं। दीपक, अगरबत्ती आदि जलाई जाती है। इस डोल के मध्य में एक खीरे आदि को फाड़कर उसमें कसैली (सुपाड़ी) आदि डालकर रख देते हैं। कीर्तनियाँ लोग कीर्तन गाना शुरु कर देते हैं और यह कीर्तन लगातार बारह बजे रात तक चलता रहता है जबतक भगवान का जन्म नहीं हो जाता। बारह बजते ही एक व्यक्ति डोल के पास जाकर सादर सुपाड़ी को खीरे में से निकालकर अलग रख देता है यानि भगवान का प्रकटीकरण। इसके साथ ही शंख, घंटे, ढोल, नगाढ़े आदि से पूरा वातावरण गूँजने लगता है। चारों तरफ भगवान कृष्ण की जय-जयकार सुनाई देती है। भए प्रकट कृपाला, दीन दयाला... के बाद कीर्तनिया गोल यह कीर्तन,
"आठो हो बजनवा, जसोदा घर बाजे,
जसोदा घर बाजे, जसोदा घर बाजे, नंद घरे बाजे, आठो हो बजनवा, जसोदा घर बाजे।
जब जनम लिए बनवारी, तब खुली गइली जेल के केवारी (किवाड़),
देवकी अउरी बसुदेव के खुली गइल हाथ के बधनवा, हो हाथ के बधनवा,
जसोदा घर बाजे, जसोदा घर बाजे, नंद घरे बाजे, आठो हो बजनवा, जसोदा घर बाजे........। "
गाते हैं। इसके बाद आरती होती है और प्रसाद बाँटा जाता है। प्रसाद की मात्रा बहुत ही अधिक होती है क्योंकि बहुत सारे श्रद्धालु अपने-अपने घर से मनभोग (आटे को घी में भूनकर चीनी, सूखे फल आदि मिलाकर बनाया हुआ प्रसाद), पंजीरी (धनिया को भूनकर, पीसकर उसमें चीनी, मेवे आदि मिलाकर बनाया हुआ प्रसाद), चनारमृत (पंचामृत) और फलों को काटकर लाते हैं और ये सभी प्रसाद लोगों में बाँटे जाते हैं। प्रसाद ग्रहण करने के बाद सभी लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं पर एक जरूरी बात यह है कि एक या दो लोग डोल के पास ही नीचे सोते हैं और दीपक में बराबर तेल-बत्ती करते रहते हैं ताकि अक्षय-दीप बराबर जलता रहे।
उस दिन से लगातार हर रात को भजन-कीर्तन का सिलसिला शुरु हो जाता है और आरती के बाद प्रसाद वितरण होता है।
पाँचवें, सातवें, नौवें या ग्याहरवें दिन इस डोल को पूरे गाँव में घूमाया जाता है। डोल के पीछे-पीछे कीर्तनिया गोल कीर्तन-भजन करते हुए चलता है और कुछ लोग डोल के साथ-साथ मनभोग, पंजीरी, पंचामृत आदि प्रसाद लेकर चलते हैं और दर्शनार्थियों को बाँटते हैं। यह डोल प्रत्येक घर में जाता है और उस घर के सभी लोग बाल कृष्ण के दर्शन करते हैं और श्रद्धापूर्वक कुछ दान-दक्षिणा चढ़ाते हैं। पूरे गाँव में डोल को घूमाने के बाद आरती करके विसर्जन कर दिया जाता है।
और हाँ जो भी चढ़ावा चढ़ता है उसको गिनकर किसी के घर पर रख दिया जाता है और अगले साल वह व्यक्ति कुछ और रुपए मिलाकर वापस करता है। इस पैसे से डोल के सामान के साथ-साथ वाद्य-यंत्र आदि खरीदे जाते हैं।
।।हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
बोलिए कृष्ण भगवान की जय।

-प्रभाकर पाण्डेय